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________________ E प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ ०६ पर्याप्तकसंक्षिप०तिरश्चां ना. उ. नि० ४७९ देसेण' कालादेशेन कालापेक्षयेत्यर्थः, 'जहन्नेणं तेत्तीस सागरोदमाई दोहि अंतोमुहुत्तेहिं अब्महियाई' जघन्येन त्रयस्त्रिंशत्सागरोमाणि द्वाभ्यामन्तर्मुहूर्ताभ्यामध्यधिकानि, अन्तर्मुहूर्तद्वयाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीत्यर्थः 'उक्कोसेणं छावहि सागरोवमाईतिहिं पुन्चकोडीहिं अमहियाई उत्कण पट्पष्टिः सागरोपमाणि निसृभिः पूर्वकोटिभिरभ्यधिकानि 'एवइयं जाव करेजा' एतावन्तं कालं सेवेत यावदेतावन्तं कालं गतिं चागति च कुर्यादिति तृतीयो गम:३ । 'सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्विइओ जाओ' स एव संज्ञिपञ्चेन्द्रिगतिर्यग्योनिका आत्मना-स्वयमेव जघन्यकालस्थितिको जातः 'सच्चेत्र रयणप्पा पुढचीजहन्नकालहिल्यवत्तत्रया माणियन्ना नात्र भवादेमोत्ति' सैर रत्नम मापृथिवीसंवन्धिही काल तक वह उस गति में गमनागमन करता है, नारक के दो भवग्रहण ले यही प्रतीत होता है कि वह सप्तम नरक में उत्कृष्ट स्थितित्रालो में दो बार ही उत्पन्न होता है, तथा- 'कालादेलेणं' काल की अपेक्षा से वह जघन्य रूप में दो अन्तर्मुहूतौ से अधिक ३३ सागरोपम तक, और उत्कृष्ट से तीन पूर्वकोटी अधिक ६६ सागरोपम तक उस गति का सेवन करता है और इतने ही फाल तक वह उसमें गमनागमन करता है। ऐसा यह तृतीय गम है।३” सो चेन अप्पणा जहन्नकालहिहओ जाओ' वही संज्ञिपश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव जो कि स्वयं जघन्य काल की स्थितिवाला है और वह सप्तम तमस्तमा प्रभा पृथिवी सम्बन्धी नैरथिकों में उत्पन्न होता है तो यहां पर वही रत्नप्रभा सम्बन्धी चतुर्थ गम की वक्तव्यता यावत् भवादेश-तका की कह लेनी चाहिये, अर्थात् रत्नप्रभा नारक पृथिवी सम्बन्धी चतुर्थगम की वक्तव्यता जैसी સુધી તે એ ગતિનું સેવન કરે છે. અને એટલા જ કાળ સુધી એ ગતિમાં ગમનાગમન કરે છે. બે ભવ ગ્રહણથી એજ સિદ્ધ થાય છે કે તે સાતમી नसभा में पा२१ अत्पन्न थाय छे. तथा 'फालासेणं' भनी अपेक्षा ते જઘન્યરૂપથી બે અંતર્મુહૂર્તથી અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગરેપમ કાળ સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ પૂર્વકેટિ અધિક ૬૬ છાસઠ સાગરેપમ સુધી એ ગતિનું સેવન કરે છે. અને એટલાજ કાળ સુધી તે એમાં ગમનાગમન કરે છે. એ પ્રમાણે આ ત્રીજે ગામ કહેલ છે. ૩ 'सो चेव अप्पणा जहन्न कालद्विइओ जाओ, मे सही पायन्द्रिय योनिવાળ જીવ કે જે પિતે જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળે છે, અને તે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા નચિકેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે અહિયાં તેજ ચેથા ગમનું કથન યાવત્ ભવાદેશ સુધીનું કહી લેવું. અર્થાત્ રત્નપ્રભા
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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