SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९८ भगवती ज्जइभाग हइएस उववज्जेज्जा' उत्कर्पण पल्पोपमस्यायंख्येयभागस्थितिकेयु उत्पधेत इति । 'ते णं भने । जीवा एगसमरणं केवइया उज्जति ते-उत्कृष्टकारस्थितिकपर्याप्तासंक्षिपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः जीवाः एकसमयेन एकस्मिन् समये कियन्त उत्पपन्ते इति प्रश्नः । उत्तरमाह-'अव सेसं जहेत्र ओहियगमएणं वहेव अणुगंतव्वं' अवशेष यथैव औधि रुगमन तथैवानु गन्तव्यम् समान्यजीवप्रकरणे यथा कथितम् तथैव सर्वम् अनुगन्तव्यमिहापि ज्ञातव्यम् । 'नवरं इमाई दोनि णाणत्ताई' नवरम्-केवलम् हमे द्वे एव नानात्वे पूर्वापेक्षया वैलक्षण्यं स्थलद्वये एव ज्ञानव्यम्, तदेव दर्शयति-'ठिई जहन्नेणं पुत्रकोडी' स्थितिघन्येन पूर्वकोटिः 'उकोसेण वि पुषकोडी' उत्कर्षेणापि पूर्वकोटिरेव, ‘एवं अणुवंयो वि' एवम्नैरयिकों में उत्पन्न होता है, और 'उकोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जह जाव उववज्जेज्जा' उत्कर्ष से पल्पोपम के असंख्यात वें भागस्थितिवाले नैरयिको में उत्पन्न होता है 'ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवड्या उववज्जंति' हे भदन्त ! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पर्याप्त असंज्ञी पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'अवसेस जहेव ओहियगमएणं तहेव अणुगंतवं' हे गौतम | इस विषय में ओर समस्त वक्तव्यता सामान्य पाठ में कहे अनुसार ही जाननी चाहिये । 'नवरं०' परन्तु 'इमाई दो नोणत्ताई' ये दो नानात्व है-स्थिति ? एवं अनुबन्ध २। इनके विषय में जो विशेषता है वह इस प्रकार से है-"ठिई जहन्नेणं पुन्चकोडी उक्कोसेण वि पुन्चकोडी' स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि वष न्यथी इस M२ पनी स्थितिवाद नयिमा भने, 'सक्कोसेण वि पलिओषमस्स असंखेग्जद जाव उववज्जेज्जा' Eथी पर इस तर पनी स्थितिवामा नयिमा -थाय छे 'ते णं भते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जंति' सापन अष्ट जनी स्थितिवाणा पर्यात मसी पयन्द्रिय તિય"ચ જીવ એક સમયમાં કેટલા ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु छ -'अवसेसं जहेव ओहियगमएणं तहेव अणुगंतव्वं गौतम આ વિષયમાં બીજૂ તમામ કથન સામાન્ય પાઠમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવું. 'नवरं०' परतु 'इम ई दो नाणत्ताई' मा मे भिन्नता छ. स्थिति १ भने અનબંધ ૨ એ એના વિષયમાં જે વિશેષપણુ છે. તે આ પ્રમાણે છે. ठिई जहण्णेणं पुव्वकोडी उक्कोसेण वि पुचकोडी' स्थिति न्यि भने Seaveथा पूर्व टि वर्षनी छे तथा 'एव अणुबधो वि' अनुमय पर न પ્રમાણે છે. અનુબંધથી લઈ આવીને ઉત્પન થતા નથી. અહિ સુધીનું કથન
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy