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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २४ उ० १ सू०४ जघन्यस्थितिकनैरयिकाणां नि० ३९९ स्थितिवदेन अनुबन्धोऽपि ज्ञातव्यः 'अवसेसं तं चेव' अवशेष - स्थित्यनुबन्धभिन्नं सर्वमपि उत्पादपरिमाग संहननादिकं तदेव - पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति । ' से णं मंते' स उकृष्ट कालस्थितिकः खलु भदन्त ! 'उकोसकालडियपज्जत मसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए' उत्कृष्टकाल स्थितिक पर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियविग्योनिकः प्रथमम् दत स्ततो मृत्वा 'रणभापुढविनेरइए' रत्नप्रभानारकपृथिवीसम्बधिनैरयिको जातः, ' gets tattए पंविदियतिरिकखजोगिए' पुनरपि नरकान्निःसृत्य उत्कर्ष काल स्थितिकपर्याप्ता संज्ञिपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकोऽभूत् 'ति इति एवं प्रकारेण 'hari कालं सेवेज्जा' कियत्कालपर्यन्तं तिर्यग्गति नारकगति च सेवेत तथा - 'केरइयं कालं गहरागई करेज्जा' कियत्कालपर्यन्तं गत्यागती - गमनागमने की है तथा 'एवं अणुबंधो वि' अनुबन्ध भी इसी प्रकार है । 'अवसे सं तं चेव' स्थितिद्वार और अनुबन्धद्वार इन द्वारों से भिन्न जो उत्पादद्वार, परिमाण द्वार, और संहनन आदि द्वार हैं वे सब पूर्वोक्त जैसे ही हैं। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'से णं भते । उक्कोसकाल हय पज्जत्तम सन्निपंचिदिपतिरिक्खजोणिए' हे भदन्त ! वह उत्कृष्ट काल की स्थितिवाला असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव यदि उस अपनी गृहीत पर्याय से मरकर 'रयणष्पमा पुढविनेरइए' रत्नप्रभा पृथिवी का नैरयिक हो जाता है 'पुणरवि कोसलए पंचिदियतिरिक्खजोणिए' और फिर वहां से निकल कर वह उत्कृष्ट काल की स्थितिवाला पंचेन्द्रियतिर्यश्च हो जाता है, तो वह इस प्रकार से किनने काल तक तिर्यग्गति और नरकगति का सेवन करता है और इस प्रकार से वह कब तक गमनागमन किया पाशु मे अभागे छे - 'अवसेसं त' चेव' स्थितिद्वार ́ भने अनुबंध द्वाराथी જુદા જે ઉત્પાદદ્વાર, પરિણામ દ્વાર, અને સહનન વિગેરે દ્વારા છે, તે તમામ પૂર્વક્તિ--પહેલા કહ્યા પ્રમાણેજ છે. डवे गौतमस्वामी अलुने येवु छे छे !-' से णं भंते ! उक्कोसकालट्ठिइयपज्जत्तअसन्निप चिं'दियतिरिक्खजोणिए' हे लगवन् उत्कृष्ट अजनी स्थिति વળે તે અસ`જ્ઞી પચેન્દ્રિય તિય ચર્ચાનિવાળા જીવ પાતે ગ્રહણ કરેલ તે पर्यायथी भरीने 'श्यणप्पभा पुढविनेरइए' रत्नप्रभा पृथ्वीनेो नैरथि थर्ध लय 'कालट्ठिए पचिदियतिरिक्खजोणिए' ते पछी त्यांथी નીકળીને તે ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા પચેન્દ્રિય તિયાઁચ થઈ જાય છે. તા તે આવી રીતે કેટલા કાળ સુધી તિય ચ ગતિ અને નારક ગતિનુ સેવન કરે છે ? અને આવી રીતે તે કર્યાં સુધી ગમનાગમન-અવર જવર કર્યાં
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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