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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०६९ उ०३०४ पृथ्वोकायिकानामवगाहनाप्रमाणनि० ३५९ संखिविय' प्रतिसंक्षिप्य पतिसंक्षिप्य अत्र प्रतिसंहरणथिलायाः शिलापुत्रकाच्च संहृत्य एकीकरण प्रतिसंक्षेपणं तु शिलापृष्ठात् पततो द्रव्यस्य संरक्षणमिति 'जावइणामेव तिकटु' यावत् इदमेव इतिकृता-शिलापृष्ठे किश्चित् द्रव्यं दत्वा घर्ष येत् तत्र पततोऽशस्य एकत्रीकृत्य पुनः शिलापृष्ठे संस्थाप्य एनमह झटित्येव घर्षयिष्यामि इपि कृत्या 'ति सत्तखुत्तो उप्पीसेज्जा' निराप्तकृत्वः एकविंशतिवारमित्यर्थः उत्पेषयेत्-चूरयेत् 'तत्थ ण' तत्र खलु 'अत्थेगहया पुढयीकाइया आलिद्धा अत्थेगइया पुढवीकाइया नो आलिद्धा' अस्त्येकके पृथिवीकायिकाः आश्लिष्टाः शिलायां शिलापुत्रके या संलग्नाः, अत्येकके पृथिवीकायिका नो आश्लिप्टाः न संलग्मा 'अत्थेगइया संघट्टिया' अस्त्येकले संघटिताः 'अत्थेगइया नो संघट्टिया' अस्त्येकके नो संघट्टिताः तत्र केचन पृथिवीकायिकाः शिलया शिलानकेण सह स्पृष्टा एव अवन्तीत्यर्थः 'अत्थेगइया परियाबिया' अस्त्येक के परितापिताः 'अत्थे गइया नो परियादिया' आत्येकके नो परितापिता केषांचित् संघृष्यमाणानां उसे 'पडिसंखविय २'बार २ ही उल शिला पर एकत्रित करती जावे इस प्रकार से करते:२ वह उसे 'त्तिसत्तखुत्तो उप्पीलेजना २१ चार पीसे पीसते समय वह अपने मन में ऐसा उत्साह रखे कि मैं इसे अभी देखते २ पीस डालती हूं इस प्रकार से उस पृथिवीकाधिक के चूर्ण करने में लगी हुइ वह दासी हे गौतम! उस पृथिवीकायिक को पूर्णरूप से नहीं पीस सकती है क्योंकि 'अत्थेगहथा.' उसमें पृथिवीकायिक कितनेक ऐसे हैं जो उस शिला में और लोढी में लग ही नहीं पाये हैं कितनेक ही लग पाये हैं तथा कितनेक ऐसे हैं जो उस शिला ले एवं लोढी से घिस ही नहीं पाये हैं तथा कितनेक पृथिवीकायिक ऐसे हैं घिसे जाने 63 मन ते प्रमाणे 8 'पडिसंखविय पडिसंखविय' वारपार शिक्षा ५२ ४ ४२ती तय मा शत ४२०i ४२di तर 'चिसतखुत्तोउप्पीसेज्जा' એકવીસ વાર વાટે અને વાટતી વખતે તે પિતાના મનમાં એ ઉત્સાહ રાખે - मान भi or तलतामा पारी नाभु छु. माशते ते पृथ्वीકાવિકને ચૂર્ણ કરવામાં લાગેલી તે દાસી છે ગૌતમ તે પૃવિકાયિકને પૂર્ણ ३५थी पाटी शती नथी भ-'अत्थेगइया०' तमासा पृथ्विायि એવા હોય છે કે-તે શિલામાં અને ઉપરવટણામાં લાગ્યા જ નથી હોતા. અને કેટલાક જ લાગેલા હોય છે. અને કેટલાક એવા હોય છે કે તે શિલાથી અથવા ઉપરવટણાથી ઘસાયા જ હોતા નથી તથા કેટલાક પૃવિકાવિકે એવા હોય છે કે-જેને ઘસવા છતાં પણ દુઃખ થતું નથી, તથા કેટલાક એવા હોય
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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