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________________ प्रमेयमन्द्रिका टीका श०१८ ४०१ सू०१ प्रथमाप्रथमत्वे पर्याप्तिद्वारम् अथ चतुर्दशं पर्यातिद्वारमाह - 'पंचहि पज्जतीहिं' इत्यादि । "पंच िपज्जतीहि पंचहि अपज्जतीहिं एगचपुहुत्तणं जहा आहारए" पञ्चभिः पर्याप्तिभिः पञ्चभिरपर्याप्तिभिरेकस्वपृथक्त्वेन यथा आहारकः, आहारक शरीरेन्द्रिय-झासोच्छ्वास - भाषामनो भेदात् पर्याप्तिः पञ्चप्रकारा, आभिपर्याप्तोऽपर्याप्तोवा, पञ्चभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तकः, पञ्चभिरपर्याप्तिभिरपर्याप्तकः आहार वनो प्रथमः किन्तु अपथम एव, अनादिसंसारे पर्याप्त्यपर्याप्त्योर ने hat oत्वादिति । "नवरं जस्स जा अस्थि" नवरं यस्य या पर्याप्ति रपर्याप्ति व अस्ति सा वक्तव्या, जीवादिदण्डक चिन्तायां यस्य जीवस्य या पर्याप्तिरपर्याप्त र्वा भवति तस्य सैव पर्याप्तिरपर्याप्त र्वा वक्तव्येति भावः । " जात्र वैमाणिया १४ वां पर्याप्तिद्वार इस १४ वें : पर्याप्तिद्वार में प्रभुने ऐसा समझाया है कि-पंचहि पज्जन्तीह पंचाहिँ अपज्जतीहि एगतपुहुत्ते णं जहा आहारए' पर्याप्तियों पांच होती हैं- आहारकपर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्रवासपर्याप्ति, और भाषामनपर्याप्ति । इन पांच पर्याप्सियों और अप सियों की अपेक्षा से एकजीव और नाना जीव आहारक के जैसा प्रथम नहीं हैं किन्तु अप्रथम ही हैं। क्योंकि अनादिसंसार में पर्याप्तिदशा और अपर्याप्तिदशा जीवने अनेकवार प्राप्त की होती है । 'नवरं जस्स जा अस्थि' आहारक सूत्रोक्त कथन की अपेक्षा यहां ऐसी विशेषता है कि जिस जीव को जो पर्याप्ति हो उस जीव को वही पर्याप्त कहनी चाहिये । इस प्रकार उस पर्याप्ति की अपेक्षा उस जीव को प्रथमता अप्रथमता का कथन करना चाहिये । 'जाब वेमाणिया नो पढमा यौभु' पर्याप्तिद्वार- ५८३ या योदभां पर्याप्तिद्वारभां अभुखे मेवु सभभव्यु छे है— पंचहिं पज्जतीहिं पंचहि अपज्जत्तीहि एगत्तपुहुत्ते णं जहा आहारए' पर्याप्तियो पांच હાય છે, આહારક પર્યાપ્તિ શરીર પર્યાપ્તિ, ઇંદ્રિયપર્યાપ્તિ, શ્વાસે શ્ર્વાર પર્યાપ્તિ અને ભાષામન પર્યાપ્તિ આ પાંચ પર્યાપ્તિ અને અપર્યાપ્તિની અપેક્ષાથી એકજીવ અને અનેકજીવા આહારક પ્રમાણે પ્રથમ નથી પરંતુ અપ્રથમ જ છે. કેમકે અનાદિ સ*સારમાં પર્યાપ્તિદશા અને અપર્યાપ્તિદશા જીવે અનેક વાર आप्त उरी छे. 'नवरं जस्स जा अस्थि' आहार सूत्रमां उद्याथी सहि श्रेवी વિશેષતા છે કેજે જીવને યાપ્તિ હોય છે તે જીવને તેજ પર્યાપ્તિ કહેવી. આ રીતે તે પર્યાપ્તિની અપેક્ષાથી તે જીવને પ્રથમતા અને અપ્રથમતાનુ
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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