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________________ प्रमैययन्द्रिका टीका श० १७ उ० २ सू० ३ शरीरजीवयोभिन्नत्वनिरूपणम् ४०५ एवमाख्यान्ति० ४ 'अहं पुण गोयषा एवमाक्खामि' अहं पुनौतम ! एक्मारूपामि एवं-वक्ष्यमाणपकारेण आख्यामि-कथयामि 'जाव परूचेमि' यावत् प्ररू. पयामि, यावत्पदेन 'भाषे भज्ञापयामि' इत्यनयोः संग्रहो भावि एवं खलु पाणाइ वाए' एवं खल्लु प्राणातिपाते 'जार मिच्छादंस गसरछे' यावत् मिथ्यादर्शन शल्ये अत्र यावत्पदेन मृपावादादत्तादानादीनां संग्रहो भवति, 'वट्टमाणस्स' वर्त. मानस्य अष्टादशपापस्थानानि समाचरत इत्यर्थः 'सच्चेव जीवे सच्चेव जीवाया' स एव जीवः शरीरम् , स एव जीवात्मा जीवा, कथंचित् स एव शरीरम् स एव जीवात्मा, न हि शरीरजीवयोरस्यन्तभेदः, अनयोरत्यन्तभेदे स्वीक्रिरमाणे सर्वथारूप से भिन्नता कहते हैं, यावत् भाषण करते हैं, यहां यावत्पद से प्रज्ञापयन्ति, प्ररूपयन्ति' इन पदों का ग्रहण हुआ है । सो वे ऐसा झुठा कहते हैं ४' 'अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि' परन्तु हे गौतम ! मैं इस विषय में ऐसा कहता हूं। यावत् 'जाव पख्वेमि' प्ररूपित करता हूँ यहां यावत्पद से "भाषे प्रज्ञापयामि' इन क्रियापदों का संग्रह हुआ है। 'एवं खलु पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले कि-माणातिपात में, यावत्पद ग्राह्य-मृषाचौद अदत्तादान, आदिकों में, तथा मिथ्यादर्शन शल्य में 'वट्टमाणस्स' वर्तमान देही का-अर्थात् १८ पापस्थानों का सेवन करनेवाले प्राणी का है सच्चेव जीवे सच्चेव जीवाथा' वही जीव-शरीर -है और वही जीवात्मा है-अर्थात् जो शरीर है वही कथंचित् जीवात्मा है वही कथश्चित् शरीर है । क्योंकि शरीर और जीवात्मा में अत्यन्त જીવ પદ વચ્ચે શરીરમાં અને જીવાત્મામાં જે સર્વથા રૂપથી ભિન્નતા કહે छ. यापत भाषा द्वारा पशु व छे. यावत् "प्रज्ञापयन्ति' प्रज्ञायना ४३ छ. "प्ररूपयन्ति" प्र३५ ४२ . a प्रभानु मानु ४थन मिथ्या (४) छे. (४) अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि" ५२'तु गौतम ! हुमा विषयमा से छु: "जाव परूवेमि" यावत् ३५। ४३ छु. मडियां यावत् ५४था "भापे प्रज्ञापयामि' माषा वा छु. अने प्रज्ञापन४३. छु एवं खलु पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले" प्रातिपातमा माडियां થાવત્ પદથી મૃષાવાદ, અદત્તાદાન વિગેરેમાં તથા મિથ્યાદર્શન શલ્યમાં "वट्टमाणस" पत्तमान हीना अर्थात् मढार (१८) २ पापस्थानाने सेवन ४२वावा प्रायन "सच्चेव जीवे सच्चेव जीशया" ते ७१ शरीर છે અને તેજ જીવાત્મા અર્થાત જે શરીર છે. તે જ કથંચિત્ જીવાત્મા છે અને જે જીવાત્મા છે, તે કથંચિત શરીર છે. કેમ કે શરીર અને જીવાત્મામાં અત્યંત
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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