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________________ ૧૨૮ भगवती सूत्रे , एवं - तथैव, अद्धासमयैरपि स्यात् - कदाचित् समयक्षेत्रापेक्षया स्पृष्टो भवति स्पात् - कदाचित् बहिःक्षेत्रापेक्षया नो स्पृष्टो भवति, तत्रापि यदा स्पृष्टो भवति तदा नियमात् अनन्तैः अद्धासमयैः एक आकाशास्तिकायमदेशः स्पृष्टो भवति ६, गौतमः पृच्छति - 'एगे भंते ! जीवास्तिकायपए से केइ एहिं धम्मत्थिकायपएसेहि पुट्ठे ? पुच्छा' हे भदन्त । एकः खलु जीवास्तिकायमदेशः कियदभिः धर्मास्तिकायम देशैः स्पृष्टः ? इति पृच्छा, भगवानाह - ' जहन्नपदे चउहिं, उक्कोसपए सतहिं' हे गौतम | जधन्यपदे - जघन्येन चतुर्भिः धर्मास्तिकाय प्रदेशः, उत्कृष्टपदेप्रकार से आकाशास्तिकाय का एकप्रदेश अद्धासमय द्वारा भी कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता है। यदि वह इनके द्वारा स्पृष्ट होता है तो तो नियम से वह अनन्त अद्धालमयों द्वारा स्पृष्ट होता है। इस कथन का तात्पर्य ऐसा है कि अद्धासमय का सद्भाव ढाईद्वीप में ही माना गया है इसके बाहिर नहीं। यहां जो ऐसा कहा गया है कि आकाशास्तिकाय का एकप्रदेश अद्धासमयों द्वारा कदाचित् स्पृष्ट होता है-सो यह कथन समयक्षेत्रकी अपेक्षा से किया गया है । बहिःक्षेत्र की अपेक्षा से नहीं । बहिःक्षेत्र की अपेक्षा से तो 'कदाचित् वह इनके द्वारा स्पष्ट नहीं होता है' यह किया गया है | ६| अब गौनमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'एगे भंते ! जीवस्थिaaree harer धम्मत्थिकाय एसेहिं पुढे पुच्छा' हे भदन्त । जीवास्तिकाय का एकप्रदेश धर्मास्तिकाय के किनने प्रदेशों द्वारा स्पृष्ट होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- जहन्नपए चउहिँ उक्कोसपए અદ્ધાસમયે વડે પૃષ્ટ થાય છે અને કયારેક તેમના વડે સ્પૃષ્ટ થતા નથી. જો તેમની સાથે પૃષ્ટ થાય તે નિયમથી જ અનત અટ્ઠાસમા વડે સૃષ્ટ થાય છે. આ પ્રકારના કથનનુ કારણ એ છે કે અદ્ધાસમયના સદ્ભાવ અઢીद्वीपभांडेय छे, तेनी महारना क्षेत्रमां होती नथी. "माशास्तिકાયને પ્રદેશ કયારેક અહ્વાસમયે વડે પૃષ્ટ થાય છે. " આ કથન સમયક્ષેત્રની અપેક્ષાએ કરવામાં આવ્યું છે. “ આકાશાસ્તિકાયના એક પ્રદેશ કયારેક અદ્ધાસમયે વડે પૃષ્ટ થતા નથી, ” આ કથન સમયક્ષેત્ર (અઢી દ્વીપ)ની ખડારના ક્ષેત્રાની અપેક્ષાએ કરવામાં આવ્યુ છે. " गौतम स्वामींना प्रश्न - "एगे भंते! जीवत्थिकायपपसे केवइएहि धम्मवास्तियनो मे प्रदेश डेटला स्थिकापसेहि पुट्टे पुच्छा " हे भगवन् ! ધર્માસ્તિકાયપ્રદેશ દ્વારા પૃષ્ટ થાય છે ?
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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