SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्रे ४२६ L * नो आत्मानौ च - अपरूपौ अवक्तव्यः - आत्मा इति च नो आत्मा इति च युगपद् व्यपदेष्टुमशक्यः १२, 'देरो आहे सम्भावपज्जचे देसे आइडे असम्भावपज्जवे देसे आहे तदुमयपज्जवे तिप्पएसिए खंधे आया य नो आया य, अवत्राच्वं आयाइय, नो आयाय १३, यदा देशः एकः आदिष्टः सद्भावपर्यवः, देशः अपरः आदिष्टः अमावपर्यवः, देशः अन्यस्तृतीयः आदिष्टः तदुभयपर्यवस्तदा त्रिमदेशिकः स्कन्धः आत्मा च तद्रूपः नो आत्मा च अमद्रूप, अवक्तव्यः - आत्मा सद्रूप इति च नो आत्मा-असद्रूप इति च युगपद्व्यपदेष्टुमशक्यः १३, तथा च त्रिम देशिक स्कन्धे त्रयोदश उपर्युक्ता भङ्गा भवन्ति तत्र पूर्वोक्तेषु सप्तसु प्रथमाः सकलादुरूप होता है और आत्मा नो आत्मा इन शब्दों द्वारा वह युगपत् कहा जाने वाला नहीं होने के कारण एकदेश से अवक्तव्य भी है, अतःयहां नो आत्मा अनेक और अवक्तव्य एक ऐसा चारहवां भंग है | १२| 'देसे, आइडे सम्भावपज्जवे, देखे आइडे असम्भावपज्जवे देसे आइद्वे तदुभयपज्ज़वे तिप्पए सिए खंधे आया य नोआया य अवत्तव्यं आयाइय नो आयाय १३' जय त्रिप्रदेशिक स्कन्ध का सद्भावपर्यायवाला एकदेश आदिष्ट होता है तथा जब असद्भावपर्यायवाला उसका दूसरा देश, आदिष्ट होता है एवं जब उसका तदुभयपर्यायवाला एक तीसरा देश: आदिष्ट होता है तब वह त्रिप्रदेशिक स्कन्ध सद्रूप होता है, असद्रूप. भी होता है और सद्रूप असद्रूप इन शब्दों से युगपत् चोले जाने वाला नहीं होने के कारण अवक्तव्य भी हो जाता है इसलिये एक आत्मा एक अनात्मा और एक अवक्तव्य ऐसा यह तेरहवाँ भंग है १३ | इस प्रकार से ये तेरह भंग त्रिप्रदेशिक स्कंध में प्रकट किये गये है ।' अर्थात् त्रिप्र હાય છે અને આત્મા, ના આત્મા આ અન્તે શબ્દો દ્વારા એક સાથે અવાસ્થ્ય होवानेभरो भवङ्क्तव्य पशु य लय छे (१३) “ देखे आइट्ठे सम्भावपज्जवे, वैसे आइट्टे असम्भावपज्जवे, देसे आइट्ठे तदुभयपज्जवे तिप्पएसिए खंधे आयो य नो आयाय अवत्तत्र्त्रं आयाइय नो आयाइय " ल्यारे त्रिप्रहेशिङ घना सहભાવપર્યાયવાળા એકદેશ આદિષ્ટ થાય છે, તથા જ્યારે અસદ્ભાવપર્યાયવાળા તેનાં ખીજો દેશ આદિષ્ટ થાય છે અને જ્યારે તેના તદુલય (સદ્ગુરૂપ અસદ્ગુરૂપ અને) પર્યાયવાળા એક ત્રીજો દેશ આદિષ્ટ થાય છે, ત્યારે તે ત્રિપ્રદેશિક કધ સદ્ગુરૂપ પણ ઢાય છે, અસદૃરૂપ પણ હાય છે અને સરૂપ, અસદ્ગુરૂપ શબ્દો વડે એક સાથે અવાસ્થ્ય હાવાને કારણે અવકતવ્ય પણ હાય છે. આ પ્રકારના આ ૧૩ ભાંગાએ ત્રિપ્રદેશિક કધમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યા
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy