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________________ કરવું प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ उ० १० सू० ३ रत्नप्रभादिविशेषनिरूपणम् देशा:- संपूर्णत्रिपदे शिकस्कन्धापेक्षा भयो द्विमदेशिक स्कन्धवदेव ३, तदन्येषु त्रिषु त्रयःस्त्रयोभङ्गाः एकवचनबहुवचनभेदात् ? सप्तमस्त्वेकविध एवेति त्रयोदशभङ्गाः, तदुपसंहरन्नाह - ' से तेगडेगं गोयमा ! एवं बुच्चर - तिप्पसिए खंधे सिय देशिस्कंध में तेरह भंग बनते हैं। इनमें से पहेले के तीन भंग तो सम्पूर्ण स्कंध की अपेक्षा से है । फिर आत्मा और नो आत्मा के साथ तीन भंग अर्थात् चौथा, पांचवां और छठा ये तीन अंग बनते हैं फिर आत्मा और अवक्तव्य के साथ तीन भंग, सातवां, आठवां और नव वां' बनते हैं। फिर नो आत्मा और अवक्तव्य के साथ तीन भंग (दुस वां, ग्यारहवां, बारहवां) बनते है । आत्मा एक, नो आत्मा एक और अवक्तव्य एक यह आत्मा आदि को एकवचन रखने से त्रिसंयोगी तेरहवां भंग बनता है १३ । त्रिप्रदश स्कंध में तीन ही प्रदेश होने के . कारण - किसी भी तरह बहुवचन नहीं आ सकता है। अतः यह एक ही भंग बनता है । आशय यह है कि त्रिप्रदेशिी स्कंध में तेरह भंग बनते हैं उनमें से तीन भंग तो सम्पूर्ण स्कंध की अपेक्षा से बनते हैं । जिनकी व्याख्या (स्पष्टना) पहले कर दी गई है। आगे आत्मा और नो आत्मा के साथ द्विसंयोगी तीन अंग बनते हैं। उनमें से 'आत्मा एक और नो आत्मा एक ' यह भंग जब त्रिदेशिक स्कंध द्विप्रदेशावगाढ (दो आकाश प्रदेश पर स्थित ) होता है तब दोनों तरफ एकवचन रहते हुए बनता है । जब विप्रदेशी स्कंध त्रिप्रदेशावगाढ़ हो तब 'आत्मा एक और नो आत्मा बहुत' तथा 'आत्मा बहुत और नो आत्मा एक' ये दो भंग (पांचवां और छठा) बनते हैं । इसी प्रकार 'आत्मा और अवक्तव्य' के साथ तीन भंग तथा 'नो आत्मा और अवक्तव्य के साथ तीन भंग बन जाते हैं । किन्तु दोनों तरफ बहुवचन वाला भंग नहीं बनता है क्यों कि यह विदेशी स्कंध है । अतः दोनों तरफ बहुवचन नहीं आ सकता है । किन्तु आगे चतु. प्रदेशी आदि स्कंधों में दोनों तरफ बहुवचन वाला भंग बन सकता है । 'से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुचह, तिप्पएसिए खंधे सिय છે. અહીં પૂવેકિત સાત ભાંગાએમાં જે પહેલાં ત્રણ ભાંગાએ છે, તે સમસ્ત ત્રિપ્રદેશિક કધની અપેક્ષાએ પ્રકટ કરાયા છે. દ્વિષદેશિક સ્કધમાં જેવાં ત્રણ ભાંગાએ પહેલાં મતાવવામાં આવ્યા છે, એવા જ लांगामा छे. માકીના ત્રણ ભાંગાએમાં જે આવાન્તર આ शु ત્રણ ત્રણ ભાંગા કહેવામાં આવ્યા છે, તે એકવચન અને બહુવચનની અપેક્ષાએ કહેવામાં માન્યા છે. તથા જે સાતમે લાંગા છે તેમાં કોઈ અવાન્તર ભેદ
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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