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________________ भगवतीसूत्रे કે आदिष्टः तदुभयपर्यवः सद्भावासद्भावोभवपर्यवस्तदा त्रिमदेशिकः स्कन्धः आत्मानौ च सद्ख्यौ अवक्तव्यः - आत्मा - सद्रूप इति च, नो आत्मा - असद्रूप इति च युगपद्व्यपदेष्टुमशक्यः ९ । 'एए तिन्नि मंगा' एते पूर्वोक्तास्त्रयो भङ्गाः सप्तमाष्टम्नवम रूपा विज्ञेयाः । अथ दशममाह - 'देसे आइहें असम्भावपज्जवे देसे आहे तदुभयपज्जवे तिप्पए सिए खंधे नो आया य अवत्तव्त्रं आयाह य नो आयाइ यू१०' यदा देशः एकः आदिष्टः असद्भावपर्यंवः, देशः अरः आदिष्टः तदुभयपर्यवःसद्भावासद्भावोभय पर्यवस्तदा त्रिमदेशिकः स्कन्धः नो आत्मा - अनात्मा अम दुरूपश्च अवक्तव्यः - आत्मा सद्रूप इति च नो आत्मा - असद्रूप इति च युगपद् त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आदिष्ट होता है तब वह अनेक प्रदेशों से सद्रूप है, और जब सदूरूप और असद्रूप पर्याय वाले एकदेश को लेकर वह आदिष्ट होता है तब वह युगपत् इन दोनों पर्यायों कों कहने वाले शब्द के अभाव से अवक्तव्य होता है अतः अनेक, आत्माएँ और एक अवक्तव्य है ऐसा यह नववां भंग होता ९ । 'एए तिनि भंगा' इस प्रकार से ये तीन सातवां, आठवां, नौवा भंग है ।. 'देसे आइट्ठे असम्भावपज्वे देसे आइट्ठे तदुभयपज्जवे तिप्पएसिए खंबे नो आया य अवत्तव्यं आयाइय नो आयाइय १०' जब त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अपने असद्भावपर्याय वाले एकदेश से आदिष्ट होता है तब वह त्रिदेशिक स्कन्ध नो आत्मा-असद्रूप वाला हो जाता है, और जब वह तदुभयपर्याय वाले अपने दूसरे देशसे आदिष्ट होता है तब वह त्रिदेशिक स्कन्ध सद्रूप और असद्रूप से युगपत् नहीं कहा जा सकने वाला होने के कारण अवक्तव्य कोटि में आजाता है, इसलिये आयाइय" न्यारे सहूभावयययवाणा हेशानी अपेक्षा ते त्रिदेशि २४६ स्माद्दिष्ट (उथित) थाय छे, त्यारे ते स६३५ छे, भने न्यारे सद्दश्य भने અસરૂપૉંચાવાળા એક ખીજા દેશની અપેક્ષાએ તે`આષ્ટિ થાય છે, ત્યારે તે બન્ને પાને એક સાથે પ્રકટ કરનારા શબ્દને અભાવે તે અવકતવ્ય होय छे. "एए तिनि भंगा" या अहारे सातभी, आइभो भने नवभो भात्र लांगाओ। भने छे. (१०) "देखे आइट्टे असन्भावपज्जवे, देसे आई तदुभयपज्जवे तिप्पएसिए खंधे नो आया य अवत्तव्वं आयाइय नो आयाइय १० " न्यारे त्रिરુશિક કધ પોતાના અસદ્ભાવ પર્યાયવાળા એકદેશની અપેક્ષાએ અ ષ્ટિ થાય છે, ત્યારે તે ત્રિપ્રદેશિક ધ અસદ્ગુરૂપવાળા થઈ જાય છે, અને જ્યારે તે સદ્ગુરૂપ અને અસદ્ગુરૂપ પર્યાયવાળા પેાતાના ખીજા દેશની અપેક્ષાએ આદિષ્ટ થાય છે, ત્યારે તે ત્રિપ્રદેશિક ધ સરૂપ અને અસરૂપ શબ્દો વડે એક સાથે વાચ્ય ન હેાવાને કારણે અવકતવ્ય ફાટિમાં આવી જાય છે. (૧૧) ·
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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