SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१२ भगवतीसूत्रे पर्यायैः आदिष्टे-आदेशे सति तैयपदिष्टः सन् नो आत्मा-अनात्मा-असदुपो भवति, तदुभयस्य स्वपरोभयस्य पर्यायः आदिष्टे-आदेशे सनि तदुभयपर्याय व्यपदिष्ट इत्यर्थः अक्तव्यः द्विपदेशिकः स्कन्धः आत्मा इति च नोआत्माअनात्मा इति च शब्देन युगपद्व्यपदेष्टुभशक्यः इत्येवं द्विपदेशिकस्कन्धे पण्णा भङ्गानां मध्ये सर्वस्कन्धापेक्षया आद्यं भरकत्रयमुक्त्वा देशापेक्षया अन्तिम भागत्रयमाह-'देसे आइहें सम्भावपज्जवे देसे आइडे असम्भावपज्जये दुप्पएसिए खंधे आया य नो आया य४' तस्य देशः एक आदिष्ट -एक देशापेक्षया स्वपर्यायः दिरूप पर्यायों की अपेक्षा से आदिष्ट होने पर वह असदुरूप है २ तथा जब वह स्वपर्याय एवं परपर्यायों से युगपत् आदिष्ट होता है-तब वह अवक्तव्य कोटि में आजाता है क्योंकि उस समय वह स्वपर्याय और परपर्यायों से युगपत् वाच्य नहीं हो सकता है ३ इस प्रकार के ये तीन भंग द्विप्रदेशिक स्कंध में जो कहे गये हैं वे संपूर्ण स्कन्ध-असंयोगकी अपेक्षा से कहे गये हैं ३ अब अवशिष्ट और जो ३ भंग हैं वे देशापेक्ष -संयोग की अपेक्षा से हैं यही कहने के लिये सूत्रकार कहते हैं-'देसे आइढे सम्भावपज्जवे, देसे आइढे असम्भावपज्जवे दुप्पएसिए खंधे आया यनो आया य४' जब वह द्विप्रदेशिक स्कंध सद्भाव पर्यायवाले अपने एक देश की अपेक्षा से व्यपदिष्ट होता है तब वह देश की वर्णादिरूप पर्यायों से युक्त होने के कारण सद्रूप है, और जब वही दिप्रदेशिक स्कंध अपने असद्भाव पर्याय वाले द्वितीय देश से आदिष्ट होता है तब वह उसकी वर्णादि पर्यायों से युक्त नहीं होने के कारण असदुप है इस प्रकार यह एकदेश की आदिष्ट पर्यायों से सद्भावपर्यायवाला होने के कारण और द्वितीय देश की पर्यायों से असद्भावपर्यायावाला होने के कारण कयंचित् सद्रूप एवं कथंचित् असदुरूप कहा गया है४, 'देसे आइटे सम्भावपज्जवे देसे आहे तदुभयपज्जवे दुप्पएसिए खंधे અપેક્ષાએ આદિષ્ટ થાય ત્યારે અસદ્ધપ છે તથા જ્યારે તે સ્વપર્યા અને પરપર્યાની અપેક્ષાએ એક સાથે આદિષ્ટ થાય છે, ત્યારે તે અવક્તવ્ય કેટમાં આવી જાય છે, કારણ કે તે સમયે તે વપર્યાય અને પરપર્યા વડે એક સાથે વાગ્યે થઈ શકતું નથી. આ પ્રકારના જે ત્રણ ભાંગાઓ કહેવામાં આવ્યા છે, તે પ્રિપ્રદેશિક સકંધના સરકંધની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવ્યા છે. બાકીના જે ત્રણ ભાંગાએ છે, તેઓ દેશાપેક્ષ છે, એજ વાત सूत्रसर 42 ४२ छ-" देसे आइडे सम्भावपज्जवे, देसे आइडे अपभापज्जवे
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy