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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका शं० १२ उ० १० सू० ३ रत्नप्रभादिविशेषनिरूपणम् ४११ मशक्यः । गौतमस्तत्रकारणं पृच्छति-" से केणद्वेगं भंते ! एवं तं चेव जाव नो आयाइय अवत्तव्यं आयाइय नो आयाइय?' हे भदन्त ! वत् केनार्थेन एवं-पूर्वोक्तरीत्या, तदेव-पूर्वोक्तवदुच्यते-यावत् द्विपदेशिका स्कन्धः स्यात् आत्मा-सदरूपः, स्यात् नो आत्मा-असद्यः इत्यादि षहमजा वक्तव्याः , तदन्तिममाह-नो आत्मा-अनात्मा-असद्रूप इति च, अबक्तव्यः,-आत्मा इति च नो आत्मा-इति च शब्देन युगपद् नो वक्तुं शक्यः इति ? भगवानाह-'गोयमा । अपणो आइटे आया१, परस्स आइट्टे नो आया२ तदुभयस्स आइडे अवत्तव्वं दुप्पएसिए खंधे आयाइय नो आयाइय३' हे गौतम ! द्विपदेशिका स्कन्धः आत्मनः स्वस्य-द्विमदेशिकस्कन्धस्य वर्णादिपर्यायैः आदिष्टे-आदेशे सति तैः व्यपदिष्टः सन् आत्मा स्वपर्यायापेक्षया सद्रूपो भवति परस्य-त्रिमदेशिकादि स्कन्धान्तरस्य अवक्तव्य भी, है ६ अब गौतमस्वामी इस विषय में कारण जानने की इच्छा से प्रभु को ऐसा पूछते हैं-'से केणटेणं भंते! एवं तं चेव जाव नो आयाइय, अवत्तव्वं आयाइय नो आयाइय' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि द्विप्रदेशी स्कंध 'कचित-आत्मा सदरूप है, कथंचित नो आत्मा-असदुरूप है" इत्यादि असंयोगी भंग तीन ३ द्विफसंयोगी भंग ३ ऐसे छह६ भंगो वाला है ? यहां 'नो आयाइय अवत्तव्वं' इस सूत्रांश से अन्तिम छहा भंग प्रकट किया गया है। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! अप्पणो आइले आया१ परस्स आइहे नो आया २, तदुभयस्स आइट्टे अवत्तव्यं दुप्पए. सिए खंधे आयाइय नो आयाइय' ३, हे गौतम! विप्रदेशी स्कंध जप अपनी वर्णादिरूप पर्यायों से विवक्षित होता है, तब वह अपनी पर्यायों की अपेक्षा से सद्रूप है ? और त्रिप्रदेशिक आदि स्कन्धान्तर की वर्णी - કારણે અવક્તવ્ય પણ છેહવે આ પ્રકારના કથનનું કારણ જાણવા માટે गौतम स्वामी महावीर प्रभुन भा प्रभारी प्रश्न पूछे छ-" से केणठेण भंते । एवं तचेव जाव नो आयाइय, अवतव्वं आयाइय नो आयाइय?" असगन् । આપ શા કારણે એવું કહે છે કે દ્વિદેશી ઔધ કથંચિત્ સદુરૂપ છે, ४थायित् अस३५ छे, त्यात पूर्वरित inा छ ? मही' “नो 'आयाइय अवत्तव्वं " मा सूत्रांश | छेल्दा-ही-मागे ५४८ ४२वामा मा०य छे. ___महावीर प्रभुना उत्तर-“गोयमा ! अप्पणो आइहे आया१, परस्स आइटे नो आयार, तदुभयस आइट्टे अवतव्वं दुप्पएसिए खंधे आयाइय नो आयाइय३" गौतम ! न्यारे पाताना पक्ष ३५ पर्याय १९ विशी સ્કંધની વિવક્ષા કરવામાં આવે છે, ત્યારે તે પિતાના પર્યાની અપેક્ષાએ સપ છે. અને ત્રિપ્રદેશિક આદિ અન્ય ધેના વર્ણાદિ રૂપ પર્યાયાની
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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