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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०११ उ०११ सू० ८ सुदर्शनचरितनिरूपणम् ५६७ ततः खलु तं महाबलं कुमारम् उन्मुक्तबालभांव-वाल्यात्परं चयः प्राप्तम् , यावद कलाविज्ञ युवावस्थापन्नम् , अलंभोगसमर्थम्-पर्याप्ततया भोगसामर्थ्यशालिनं विज्ञाय, अम्बापितरौ तदर्थम् , अष्टौ प्रासादावतंसकान्-उत्तमप्रासादान कारयनः, 'अरेत्ता अब्युग्गयमूसियपहसिए - इच, वण्णओ, जहा रायप्पसेणइज्जे जाव पडिरूवे' कारयित्वा-महावलस्य निवासार्थम् अष्ट प्रासादावतंसकान्-श्रेष्ठपासादान निर्माप्य तानेव विशिष्टि-अभ्युद्गतोच्छ्रितान्-अत्युच्चान्-गगनचु. म्बिन इत्यर्थः, प्रहसितानिव-शुभ्रमभापटलप्रकटनया इसतइत्र इत्युत्प्रेक्षा, वर्णकः एतेषां मासादानां वर्णनं यथा-राजमश्नीये कृतं तथा विज्ञेयम् , यावत् प्रासादीयान् दर्शनीयान् अभिरूपान् प्रतिरूपान्-अत्यन्तमनोहरान्-अष्टपासादावतंसकान् कारयत इति पूर्वेणान्वयः। 'तेलिं गं पासायवडे सगाणं बहुमज्ज्ञदेसभागे, एत्थणं भाव से रहित यावत् कलाविज्ञ, युवावस्थापन परिपूर्ण भोगयोग्य वयवाला जाना तब उन्हों ने " यह जब पर्याप्त रूपले भोग भोगने की शक्तिवाला हो गया है। ऐसा जानकर उसके लिये आठ उत्तम प्रासादों को-महलों को-बनवाया करता अन्भुरगय मूसियपहसिए इव वण्णओ जहा रायप्पसेणइज्जे जाव पडिरूले ये आठों प्रासाद बहुत बड़े ऊँचे थे-गगन चुम्थी थे-शुभप्रयापटल से प्रकाशित होते रहने के कारण ये ऐसे ज्ञात होते थे कि मानों ये सब हस से रहे हैं। इन समस्त प्रासादों को वर्णन जैसा राजप्रश्नीय सूत्र में किया गया है-वैमा जानना चाहिये यावत् “ प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप, प्रतिरूप, अत्यन्तमनोहर ऐसे आठ श्रेष्ठ प्रासाद बनवाये। इस प्रकार से इन विशेषणोंको आठ प्रासादों के साथ लगाकर उनका वर्णन कर लेना चाहिये 'तेसिंण બાલ્યાવસ્થા પૂરી કરીને યુવાવસ્થાએ પહો અને કલાવિશ થયે ત્યારે માતાપિતાને એવું લાગ્યું કે હવે “મહાબલ કુમાર પર્યાપ્ત રૂપે ભોગ ભોગવવાને સમર્થ થયો છે ” તેથી તેમણે તેને માટે આઠ ઉત્તમ પ્રાસાદ (म1) मधाच्या. “करेत्ता अभुगगयमूसियपहसिए इव वण्णओ जहा राय. पसेणइज्जे जाव पडिलवे" ते माहे भस घ! . अन्या-नयुभीता શુભપ્રભાપટલથી પ્રકાશિત થયા કરતા હોવાને લીધે એવું લાગતું હતું કે તે પ્રાસાદો જાણે કે હસી રહ્યા હતાં. રાજપ્રશ્રીય સૂત્રમાં પ્રસાદનું જેવું पान मी ५ ते साठे प्रासाही विष समय से. “ प्रासाटीय, शनाय, અભિરૂપ, પ્રતિરૂપ (અત્યન્ત મને હર) એવા આઠ પ્રાસાદો બંધાવવામાં આવ્યા,” આ કથન પતનું સમસ્ત કથન અહીં પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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