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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ११ उ० ११ सू० ७ सुदर्शनचरितनिरूपणम् ५५५ आहरन्ती-आहारं कुर्वती विवित्तमउएहिं सयणासणेहिं पइरिक्कमुहाए मणोणुकूलाए, विहारभूमीए' विविक्तमृदुकैः-विविक्तानि-दोपरहितानि मृदुकानि च कोमलानि यानि तानि तथाविधैः, शयनासनैः, प्रतिरिक्तसुखया,-प्रतिरिक्तत्वेन तादृश-जनापेक्षया विजनस्वेन सुखा-सुखकारिका, सुभा वा, या सा तथाविधया, एकान्तसुखकारिकयेत्यर्थः, मनोऽनुकूळया-हृदयङ्गमया, विहारभूम्या 'पसत्थदोहला, संपुन्नदोहला, सम्माणियदोइला, प्रशस्तदोहदा इष्टदायकत्वात् सम्पूर्णदोहदा-अभिलषितार्थपूरणात्-परिपूर्णमनोरथा, सम्मानितदोहदा-अभिलपितार्थस्य भोगप्राप्तेः सफलमनोरथा अश्मिानित दोहदा-लेशमात्रमपि नापूर्णमनोरथा, अतएव-वोच्छिन्नदोहदा,चवणीयदोहदा, वागयरोगमोहभयपरित्तासा, तं गर्भ मृहं सुहेणं परिवहई व्युच्छिन्नदोहदा शान्तमनोरथा, पनीनदोहदा व्यवच्छिन्नमनोरथा, व्यपगतरोगमोड अवसर पर लेने लगी विवित्तमउएहिं मयणासणेहिं पइरिक सुहाए मणो. णुकूलाए विहारभूमीए' वह ऐसे दोषरहित और कोमल आसनों पर बैठती थी जो अपने जैले व्यक्तियों से अधिष्ठित नहीं होते थे तथा सुखकारक होते थे, या शुभ होते थे अर्थात एकान्त सुखकारक होते थे मनको रुचते थे गर्भ के समय का 'पसत्थदोहला' इसका दोहला अनिन्दनीय था 'संपुण्णदोहला' संपूर्ण था-क्यों कि इसका अभिलषित अर्थ पूर्ण हो जाता था 'संमाणियदोहला' सम्माननीय था क्यों कि उसे आदर मिलता था (अधिमाणियदोहला) जिसके मनोरथ सम्पूर्ण कर दिये हैं इसीलिये-'वोच्छिन्नदोहदा, ववणीयदोहदा, ववगयरोगमोहभयपरितासा, तगभं सुहं सुहेणं परिवहइ उसकी हरतरह से प्रर्ति की जाती थी, अतः उसका मनोरथ शान्त हो जाता था इस तरह व्यवच्छिन्न 4 Tum अनुसार अथित समये सेवन ४२१ दागी. “ विवित्त मउएहि सयणासणेहिं पइरिक्कसुहाए मणोणुकूलए विहारभूमीए' ते द्वषति भने કેમળ આસન પર મનનુકૂલ ઉચિત સ્થાને બેસતી હતી, તે શયનાસનો સુખકારક જ હત અથવા શુભ હતાં એટલે કે તે આસને બિલકુલ सुम४।२४ ११ तi भने भनने गमे तेवi ai. “ पसत्थदोहला" गावસ્થામાં તેને જે દે હલ (દેહદ) ઉત્પન્ન થયે હતું તે પ્રશસ્ત હતે "संपुण्णदोहला" ते २ हड (Aलिसाषा) उत्पन्न थत ता-मिसषित पस्त भी पाथी तनाव से पूर्ण था तो, " समाणिय दोहला" તેને દેહ સમ્માનનીય હતો કારણ કે તેને અનાદર થતે નહીં, "वोच्छिन्नदोइदा, ववणीयदोहदा, ववगयरोगमोहभयपरित्तासा, त गव्म सुई सुहेण परिवहइ" तेना होनी ४ ५४ री पूति' ४२पामा माती ती. તેથી તેને મરથ શાન્ત થઈ જતાં હતાં. આ રીતે જેના મનોરથ વ્યવ भ० ६९
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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