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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श• ११ उ० ११ स० ६ सुदशनचरितनिरूपणम् ५२९ इत्यादिरीत्या प्रतिपादितः, शशीव प्रियदर्शनो नरपतिः, मज्जनगृहात् प्रतिनिष्काम्यति, 'पडि निक्खमित्ता, जेणेत्र बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, सीहासणवरसि पुरत्याभिमुहे निसीयई' प्रतिनिष्क्रम्य-मज्जनगृहात् निर्गत्य, यत्रैव बाह्या बहिःस्थिता उपस्थानशाला आसीत् , तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरे-श्रेष्ठसिंहासने पौरस्त्याभिमुखो निषीदति-उपविशति, 'निसीइत्ता अप्पणे उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए अहमदासणाइं से यवत्थपच्चुत्थुयाइ, सिद्धत्थगकयमंगलोवणाराई स्यावेई' निषद्य-उपविश्य आत्मनः-स्वस्य, उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे-ईशाणकोणे अष्टौ भद्रासनानि-उत्तमासनानि श्वतवस्त्रप्रत्यवस्तु तानि-शुक्लवस्त्राच्छादितानि, सिद्धार्थ ककृतमङ्गलोपचाराणि सिद्धार्थ कैः सर्पपपदकहितले. रमणीये, स्नानमंडपे, नानामणिरत्नभक्तिचित्रे, स्नानपीठे सुखनिषण्णः" इत्यादिरीति से कहा गया है। चारों ओर गवाक्षों से रमणीय चित्रविचित्र मणियों से सचित्र तलवाला सुंदर ऐसा तथा अनेक प्रकार के मणिरत्नों की वेलों से सचित्र स्नानपीठ पर सुखपूर्वक बैठ कर स्नान किया और स्नानकरके बद्दलसे जैसे चंद्रमा बाहर निकले वैसे ही बलराजा स्नानगृहसे बाहर निकला अर्थात् चंद्रमा के तुल्य है प्यारा दर्शन जिनका ऐसे वेवल राजा उस स्नानगृह से बाहरनिकले 'पडि. निक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उठाणसाला तेणेव उपागच्छह बाहर निकल कर फिर वे बाहर की उपस्थानशाला में आये ' उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे निसीयह' वहां आकर वे पूर्व दिशा की तरफ मुंहकर के सिंहासन पर बैठ गये 'निसीइत्ता अपपणे उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए अट्ठभदासणाई सेयवस्थपच्चुत्थुयाई सिद्धस्थगकयमंगलोवयाराई रयादेइ' बैठकर फिर उन्हों ने अपने से ईशानकोने में आठ भद्रासनों को जो कि सफेदवत्र से ढंके हुए थे तथा सिद्धार्थकणिरत्नट्रिमतले, रमणोये, स्नानमंडपे, नानामणिरत्नभक्तिचित्रे, स्नानपीठे सख. निषण्णः स्नान ४श, यन्द्रनारे प्रिय शन छे सेवा मसाला स्नानमाथी मार नीv21. “पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवदाणसाला तेणेव उवागच्छइ" त्यांची नाइजीन चातानी मा ६५थान वाममाव्या. " उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयइ" त्यां सावीत દિશા તરફ મુખ રાખીને, પહેલેથી જ ત્યાં ગોઠવેલા ઉત્તમ સિંહાસન પર બેસી गया. "निसीइत्ता अप्पणो उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए अनुभदासणाईसेयवत्थपच्चत्थुयाई खिद्धत्थगझ्यमंगलोवयाराई रयावेइ" संडासन ५२ विराजमान थान તેણે પિતાની ઈશાન દિશામાં આઠ ભદ્રાસને ગોઠવ્યાં તે ભદ્રાસને સફેદ भ० ६६
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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