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________________ - - - - ४४६ भगवती उक्कोसपए जीवपएसा विसेसाहिया' हे गौतम ! सर्वस्तोकाः-सर्वेभ्योऽल्पाः लोकस्य एकस्मिन् आकाशप्रदेशे जघन्यपदे जघन्यतया जीवप्रदेशाः सन्ति, सर्व जीवाः असंख्येयगुणाः सन्ति, उत्कृष्टपदे उत्कृष्टतया जीवप्रदेशाः विशेषाधिकाः, सन्ति । अस्य सूत्रस्य विस्तरों यथा-एतेषु त्रयोदशसु प्रदेशेषु त्रयोदशपदेशकानि दिग्दशकस्पर्शानि दशम दिक्षु व्याप्तानि त्रयोदशद्रव्याणि स्थितानि सन्ति, तेषी च प्रत्याकाशमदेशं योदशत्रयोदशप्रदेशा भवन्ति, एवं लोकाकाशप्रदेशेऽनन्तजीवावगाहेन एकैकस्मिन् आकाशपदेशे अनन्ता जीवप्रदेशा भवन्ति, लोकेच सूक्ष्मा अनन्तजीवात्मका निगोदा पृथिव्यादि सर्वजीवा संख्येयकतुल्याः सन्ति, 'गोयमा! सव्वत्थोवा लोगस्स एगंमि आगासपएसे जहन्नपए जीवपएसा सव्वजीवा असंखेजगुणा उक्कोसपए जीवपएसा विसेसाहिया' हे गौतम ! लोक के एक आकाशप्रदेश में जघन्यरूप से वर्तमान जीवप्रदेश सब से कम हैं-तथा इनकी अपेक्षा जो जीव हैं वे सय असंख्यात' गुणित हैं। और इन सब जीवों की अपेक्षा एक आकाशप्रदेश में वर्त. मान नो उत्कृष्टपदी जीव हैं वे विशेषाधिक हैं। इस सूत्र का विस्तृत रूप से अर्थ ऐसा है-इन १३ तेरह प्रदेशों में तेरह प्रदेशो वाले, दर्श. दिशाओं का स्पर्श करने वाले दशदिशाओं में व्याप्त होकर रहने वाले तेरह द्रव्य स्थित हैं, इनके प्रत्येक आकाश प्रदेश में १३-१३ प्रदेश होते हैं। इस प्रकार लोकाकाश के एक प्रदेश में अनन्तजीवों को अवगाह होने से एक २ आकाशप्रदेश में अनंतजीवप्रदेश होते हैं। लोक में अनन्तजीवात्मक क्षम-निगोद जीव, पृथिव्यादिक सर्व जीवों के असं.. मडावीर प्रमुन। उत्तर-" गोयमा!" गौतम! “सव्वत्थोवा बोगस्य एगम्मि आगासपएसे जहन्नपए जीवपएसा, सव्वजीवा असंखेज्जगुणा, उकोसपए जीवपएसा विसेसाहिया" લોકના એક આકાશપ્રદેશમાં જઘન્ય રૂપે રહેલા જીવપ્રદેશે સૌથી माछi हाय छ, तेना ४२di रे । छे त मसभ्यात गgi- डाय छे. ' એક આકાશપ્રશમાં રહેલા છ કરતાં એક-આકાશપ્રદેશમાં રહેલા ઉત્કૃષ્ટપદી - જ વિશેષાધિક છે આ સૂત્રને અર્થ નીચે પ્રમાણે સમજો. તે તેર પ્રદેશમાં તેર પ્રદેશવાળા, દસ દિશાઓનો સ્પર્શ કરનારા દસ દિશાઓમાં વ્યાપ્ત થઈને રહેનારા ૧૩ દ્રવ્ય સ્થિત (રહેલો) છે. તેમના પ્રત્યેક આકાશ પ્રદેશમાં ૧૩-૧૩ પ્રદેશ હોય છે. આ રીતે કાકાશમાં એક - અનન્ત ને અવગાહ હોવાથી, એક એક પ્રદેશમાં અનંત જીવપ્રદેશ
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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