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________________ प्रमेयधन्द्रिका टीका श० ११ उ० १० ५०२ लोकालोकपरिमाणनिरूपणम् ४३५ खलु तस्य दारकरय अस्थिमज्जा. महीणा भवन्ति, किन्तु नो चैत्र खलु ते देवाः अलोकान्त संप्राप्नुवन्ति, ततः खलु तस्य वारकस्य आसप्तमोऽपि कुलशः बहीणो भवति, किन्तु नो चैत्र खलु ते देवाः अलोकान्तं संप्राप्नुवन्ति, ततः खलु तम्य दारकस्य नासगोत्रमपि प्रहोणं भवति किन्तु नो चैव खलु ते देवाः अलोकान्तं संप्राप्नुवन्ति, इति भावः। गौतमः पृच्छति-'तेसिं गं देवाणं किं गए बहुए, अगए बहुए ?' हे भदन्त ! तेषां रुल पट्स्वपि दिक्षु प्रयातानां देवानां कि गतं-व्यतिक्रान्त क्षेत्रं बहुकम्-अधिकं भवति ? किंवा अगतम्-अन्यतिक्रान्तं क्षेत्रं बहुकम् अधिकं भवति ? 'गोयना ! नो गए बहुप, अगए बहुए' हे गौतम ! नो खलु नहीं पा सकते हैं । उस बालक की हड्डियों और मज्जा के नष्ट होने तक भी देव अलोक का अन्त नहीं पा सकते हैं। उस बालक की सात पीढीतक भी नष्ट हो जायें तो जितना समय इनके नष्ट होने में लगता है-उसने सस्यतक भी वे देव निरन्तर चलते रहें-तब भी अलोक का अन्त नहीं पा सकते हैं। यहां तक कि उस चालक के नाम गोत्र भी समाप्त हो जायें-तो इनकी समाप्ति होने में जितना काल समाप्त हुआ है उतने समय तक भी निरन्तर चलने पर वे देव अलोक का अन्त नहीं पा सकते हैं। ____ अब गौतम स्वामी प्रभु से पूछते हैं-'तेसिंणं देवाणं किं गए वहुए, अगए बहुए' हे अदन्त दशों दिशाओं में एक २ कर गये हए उन देवों का क्या गत-व्यतिक्रान्त-क्षेत्र अधिक है, अथवा अव्यलि. कान्त क्षेत्र अधिक है ? इसके उत्तर में प्रश्नु कहते हैं- गोयमा!' हे શકતા નથી, તે બાલકનાં હાડકા અને મજજા નષ્ટ થઈ જવા છતા પણ તે દેવે અલકાન્ત સુધી પહોંચી શકતા નથી. તે બાલકની સાત પેઢી પણ નષ્ટ થઈ જાય છે. તે સાત પેઢીને નષ્ટ થવામાં જેટલો કાળ લાગે છે એટલા કાળ પર્યન્ત ચાલવા છતા પણ તે દેવે અલકાન્ત સુધી પહોંચી શકતા નથી આટલો વિશાળ અલોક છે, એમ સમજવું गौतम स्वामीना प्रश्न-" सिंण देवाण' कि गए बहुए, अगए बहुए ?" હે ભગવન! દશે દિશાઓમાં ગયેલા તે પ્રત્યેક દેવ દ્વારા જે ક્ષેત્રને ઉલ્લવિત કરવામા આવ્યું છે તે ક્ષત્ર અધિક હોય છે ? કે અનુલંઘિત ક્ષેત્ર તેમનાં દ્વારા પાર કરવાનું બાકી છે તે ક્ષેત્ર) અધિક હોય છે? महावीर प्रभुने। उत्त२-" गोयमा । 3 गौतम ! "नो गए बहुए, अगए बहुए" तभणे व्यdिslrd (Scaud) ४२ क्षेत्र मEि IT नथी, परन्तु
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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