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________________ ४४ भगवती स्ल णं भने ! एगंमि आगासपएसे किं जीवा, जीवदेखा, जीवपएसा? अजीवा. अजीवदेसा, अजीपदसा ? हे भदन्त ! तिर्यग्लोकक्षेत्रलोकस्य खलु एकस्मिन् आकाशप्रदेशे कि जीवाः, जीवदेशाः, जीवप्रदेशाः सन्ति ? किंवा अजीवाः, अजीवदेशाः, अजीवप्रदेशाः रान्ति ? भगवानाह-‘एवं जधा-अहोलोगखेत्तलोगस्स तहेव' एवं पूर्वोत्तरीत्या यथा अधोलोकक्षेत्रलोकग्य प्रतिपादितं तथैव तियग्लोकक्षेत्रलोकस्यापि प्रतिपत्तव्यम् , ‘एवं-उलोगखेचलोगस्सवि' एवं-पूर्वोक्तरोत्यैव अवलोक क्षेत्रलोकस्यापि अधोलोकक्षेत्रलोकवदेव, प्रतिपत्तव्यम्, - नवर अद्धासमओ नत्थि, अरूबी उबिहा' नवम्म् अधोलोकतिर्यगलोकापेक्षया उजलोकस्य विशेषस्तु अत्र अदालमयो नास्तीति कृत्वा, अरूपिणश्चतु___ अन गौतमस्वामी प्रशु से ऐसा पूछते हैं-'मिरियलोयरवेश लोगस्स णं भंते ! एगलि आगासपएसे कि जीचा जीवदेला जीवपएला? हे भदन्त ! तिम्लीकरूप क्षेत्रलोक के एक आकाश प्रदेश में क्याजीव हैं, जीवदेश है, जीवप्रदेशा है ? 'अजीया, अग्जीवदेसा, अजीवपएसा ?' अजीच्य है, अजीनदेश हैं या अजीवप्रदेश है ? इसके उत्तरमें प्रभु कहते हैं-'एवं जहा अहोलोक खेत्तलोगस तहेव' जिस प्रकार से अधोलोक रूप क्षेत्रलोक के एक प्रदेश में कहा गया है उसी प्रकार से यहां पर भी जानना चाहिये-' एवं उथलोगखेतलोगस्त वि' इसी प्रकारका कथन अवलोकरूप क्षेत्रलोक के एक आकाशप्रदेश के विषय में भी समझना चाहिये। परन्तु जो विशेषता है वह इस प्रकार से है कि यहां पर 'अद्धासमयो लत्यि' काल नहीं है। इसलिये चार अरूपी यहां हैं। जीतम साक्षीने प्रश्न-" तिरियलोयखेत्तलोगस्स ण भंते ! एगमि आगा सपरसे कि जीवा, जीवदेसा, जीवपएसा, अजीवा, अजीवदेसा अजीवपएसा ?" હે ભગવન્! તિર્યગ્લેક રૂપ ક્ષેત્રલેકના એક આકાશપ્રદેશમાં શું છે હોય છે ખરાં? અથવા જીવદેશ છે કે જીવપ્રદેશ છે ? અજી અજીવ દેશ કે અજીવ પ્રદેશ છે? ____ महावीर प्रभुन। त्तर-एव जहा अहोलोग खेत्तलोगस्स तहेव" माया રૂપ ક્ષેત્રલોકન એક આકાશપ્રદેશમાં જેવું કામ કરવામાં અાવ્યું છે. એવું જ કથન તિર્થક રૂપ ક્ષત્રલેકના એક આકાશપ્રદેશ વિષે પણ સમજવું. " एवं उलोगखेत्तलोगस्स वि" मे ४ थन सो ३५ क्षेत्रदाना એક આકાશપ્રદેશ વિષે પણ સમજવુ. પરંતુ તે કથન કરતાં આ કથનમાં मेटी विशेषता छ है “ अद्धासमओ नत्थि" Saals ३५ क्षेत्रमा जना - સદૂભાવ હોતે નથી. તેથી ત્યા ચાર અરૂપી દ્રવ્યને જ સદ્ભાવ હોય છે,
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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