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________________ - - ३६४ भगवतीस्त्र पुट्ठाई, जाव घडताए चिट्ठति ?' हे भदन्त ! अस्ति-संभवति खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे द्रव्याणि किं सवर्णान्यपि भवन्ति, अवर्णान्यपि भवन्ति, एवमेव सगन्धान्य पि, अगन्धान्यपि, सस्पर्शान्यपि, अस्पर्शान्यपि, अन्योन्यवद्धानि-परस्परगाढालेपेण संवद्धानि, अन्योन्यस्पृष्टानि, यावत्-श०१-उ० ६ अन्योन्यावगाढानि-परस्परमेकीभावं प्राप्तानि अन्योन्यस्नेहप्रतिवद्धानि-अन्योन्यं स्निग्धतया संबद्धानि, अन्योन्यसमभरघटतया, समोन विषमः घटस्य सर्वदेशाश्रितत्वेन भरो जलसमुदायो __ यत्र स समभरः, सर्वथा भृतो वा समभरः समशब्दोऽत्र सर्वार्थवाचका, स चासौ घटश्चेति समभरघटः, तस्य मावस्तता तया, सर्वथा भृतघटाकार-तयेत्यर्थः तिष्ठअन्नमन्नबहाइं अन्नमन्नपुटाई जाव घडत्ताए चिट्ठति' हे भदन्त ! जंबूद्वीप नाम के द्वीप में क्या वर्णसहित, वर्णरहित, गंधसहित, गंधरहित, रससहित, रसरहित और स्पर्शसहित, स्पर्शरहित भी द्रव्य परस्पर गाढश्लेष से संबद्ध हो कर तथा आपस में स्पृष्ट होकर रहते हैं ? यहां यावत् शब्द से-'अन्योन्यावगाढानि, अन्योन्यस्नेहप्रतिघद्धानि, अन्योन्यसमभर" इन पदों का संग्रह हुआ है। परस्पर में एकीभाव को प्राप्त हो कर रहना इसका नाम अन्योन्यावगाढ है, तथा परस्पर में स्निग्ध गुणको लेकर संबद्ध होकर रहना इसका नाम अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्ध है। तात्पर्य-पूछनेका यह है कि जिस प्रकार घट में भरा हुआ जल उस घट में सम्पूर्णरूप से भरा रहता है-वह उसमें सम विषम रूप से भरा हुआ नहीं रहता है-किन्तु घट के सर्वदेशों में व्याप्त होकर भरा रहता है-अथवा सर्वथा भरा रहता है-यहां सम शब्द सर्व अर्थका पि अफासाई पि, अन्नमन्नबद्धाइ अन्नमन्नपुट्ठाई जाव घडत्ताए चिट्ठति ?" હે ભગવન્ ! શું જ બૂદ્વીપમાં વર્ણસહિંત, વર્ણરહિત, ગંધ સહિત, ગંધરહિત, રસસહિત, રસરહિત, સ્પર્શ સહિત અને સ્પર્શ રહિત દ્રવ્ય પણ પરસ્પર ગાઢ શ્લેષથી સંબદ્ધ થઈને તથા આપસમાં પૃષ્ટ થઈને (એક બીજાને સ્પશીને) २सा डाय छे ४२i ? मी " जाव (यावत् ) ५४थी “ अन्योन्यावगाढानि, अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्धानि, अन्योन्यसमभर” '२मा पहीन सय थये। छे. પરસ્પરમાં શિકય ભાવથી યુક્ત થઈને રહેવું તેનું નામ “અન્યાવગાઢ છે. તથા સ્નિગ્ધતા (ચિકાશ) ના ગુણને લીધે સંબદ્ધ થઈને રહેવું તેનું નામ “અન્ય નેહપ્રતિબદ્ધ” છે. આ પ્રશ્નનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે જેવી રીતે ઘડામાં ભરેલું પાણી તે ઘડામાં સંપૂર્ણ રૂપે ભરેલું રહે છે તે તેમાં સમ વિષમ રૂપે ભરેલું રહેતું નથી, પરંતુ ઘડાના સર્વ દેશોમાં વ્યાપેલું डाय छ अथवा सपू ३२ सयु २७ छ (माही " सम" ५४ 'सव'
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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