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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ११ उ० ९ सू० ३ शिवराजर्षिचरितनिरूपणम् ३५५ प्रज्ञापयति, प्ररूपयति च-'अत्थिणं देवाणुप्पिया! ममं अतिसे से नाणदंसणे सप्लुप्पन्ने, एवं खलु अरिंस लोए जाव दीवाय, समुदाय' अस्ति खल्लु सम्भवति भो देवानुप्रियाः! मम अनिशयं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् , यत्-अस्मिन्लोके यावत्सप्तव द्वीपाः, सप्तैव समुद्राश्च सन्ति, तेन परं व्युन्छिन्नाः द्वीपाश्च समुद्राश्चेति, 'तए णं तरस सिबस्स रायरिसिस्स अंतिए एयम्टुं सोचा निसम्म हथिणाउरे नयरे सिंघाडगतिगजाब पहेस बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खड, जाव परूवेइ'ततः खलु तस्य शिवस्य राजः अन्तिके-समीपे, एतमर्थ-पूर्वोक्तं वृतान्तं श्रुत्वा, निशम्य हइये अवधार्य, हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटकत्रिक यावत् चतुष्क चत्वर-महापथपथेषु वहुजनः अन्योऽन्यस्य एवं-वक्ष्यमाणरीत्या आख्याति, यावत्-भापते, प्रज्ञापयति, 'एव खल्लु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ, जाव परूणं देवाणुपिया! बम अति से नाणदलणे समुप्पन्ने' हे देवानुप्रियो ! सुझे अनिकाय जाम और दर्शन उत्पन्न हुआ है ' एव खलु अस्सि लोए जान दीया य समुदा च' इसले मैं ऐसा जानता और देखता हूं कि इस लोक सात ही हीप हैं और लात ही समुद्र हैं। इनके आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं। 'तएणं तस्स सिक्स्स रायरिसिस्स अतिए एयम सोचा लिलम हरियणाउरे नयरे सिंघाडगतिग जाव पहेतु पहजो अनसन्माल एमाहक्खा जाव परूवेई' इस प्रकार से उस शिवजऋषि के कथन को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर हस्तिनापुर में अनेक लोक सृङ्गाटक त्रिक यावत् राजमार्ग पर आपल में इस प्रकार से कहने लगे और प्ररूपणा करने लगे-यहां यावत् शब्द से 'भक्ते, प्रज्ञापयति' इन क्रियापदों का अध्याहार हुआ है। एवं " अस्थिणं देवाणुपिया । मम अतिसे से नाणदसणे ससुरपन्ने" भने अतिशय ज्ञान मन हर्शन उत्पन्न युछे “एवं खलु अस्लि लोए जाव दीवा य समुद्दा य" ते ज्ञान मने दशानना प्रभावथा मे Mel-भी. श छु । આ લેમાં સાત જ દ્વીપ છે અને સાત જ સમુદ્રો છે. તેનાથી અધિક દ્વિીપ પણ નથી અને સમુદ્રો પણ નથી. तएणं तस्स सिवरायरिसिस्स अतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हथिणारे नयरे सिंघाडगतिग जाब पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्वइ, जाव परवेइ" શિવરાજ ઋષિના આ પ્રકારના કથનને શ્રવણ કરીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને હસ્તિનાપુર નગરને છૂગાટક, ત્રિક આદિ માર્ગો પર તથા રાજમાર્ગ પર એકત્ર થયેલા અનેક માણસો એક બીજાને એવું કહેવા લાગ્યા, ભાષણ ४२वा साया, प्रज्ञापना मन ५३५४ा ४२वा माया -"एवं खलु देवाण
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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