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________________ भगवतीसूत्रे भगवानाह- गंगेया ! सय नेरइया नेरइएमु उपयज्जति, नो असयं नेरइया नेरइएसु उववजंति' हे गाङ्गेय ! स्वयमेव आत्मने। नैरयिका नैरविकेप उपपद्यन्ते, नो अस्वयम् ईश्वरपारतम्यादेः नैरयिका नैरपिकेषु उपपद्यन्ते, कालादि कारणकलापव्यतिरिक्तस्य ईश्वरस्य युक्तिभिर्विचार्यमाणस्यासिद्धत्वात् । गाजेयः पृच्छति-' से केणणं भंते ! एवं बुचइ जाव उववज्जति ?' हे भदन्त ! तत् केनार्थेन एक्शुच्यते-यावत्-स्वयमेव नायिका नैरयिकेपु उपपधन्ते, नो अस्वयम् उपपद्यन्ते इति १ भगवानाह- गंगेया। कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए, कम्ममारियत्ताए, कम्मगुरुसंभारियताए ' हे गाङ्गेय ! कदियेन कर्मणा मुदितत्वेन, किंतु नहि केवलं कर्मोदयात्रेण नैरयिकेषु उत्पद्यते केवलिनामपि ___ इस प्रश्न के उत्तर प्रह कहते हैं- गंगेया' हे गांगेय ! ऐसी बात नहीं है 'सयं नेरच्या नेरहएलु उपवति , नो असर्थ नेरड्या नेरइएस्तु उपचज्जलि' रधिक अपने आपही भरविकों में उत्पन्न होते हैं, ईश्व रकी प्रेरणा आदि वे वहां उत्पन्न नहीं होते हैं। क्यों कि कालादि कारणकलापले भिन्न ईश्वर स्वतंत्र पदार्थ है यह बात जय युक्तियों द्वारा विचारित होती है-तब उसकी प्रतिष्ठा स्थापित नहीं होती है। अब गांगेय प्रभुले ऐसा पूछते हैं-से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चा जाय उववज्जति' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारणसे कहते हैं कि नैरचिक अपने आपही नैरयिकोंमें उत्पन्न होते हैं-ईश्वरकी प्रेरणादि से वे वहां उत्पन्न नहीं होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गंगेया। कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए, कम्मभारियताए, कम्मगुरुसंभारिप महावीर प्रभुना जत्तर-गंगेया ! " है गांगेय ! मेवी अपात नथी ५६ “ सय नेरइया नेरइएसु उद्भवण्जति, नो असय नेरइया नेरइपसु उववज्जति" नारपातानी ते न२i Gपन्न थाय छ, ४५२नी प्रेरणा આદિ કારણે તેઓ ત્યાં ઉત્પન્ન થતા નથી, કારણ કે કાલાદિ કારણ કલાપથી ભિન્ન ઈશ્વર સ્વતંત્ર પદાર્થ છે એ વાત યુક્તિ (દલીલ) દ્વારા પુરવાર થઈ શકતી નથી गेय मारने प्रश्न-" से केणठण भते ! एव वुच्चइ, जाव उववजंति" હે ભદન્ત ! આપ શા કારણે એવું કહે છે કે નારકો પોતાની જાતે જ નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે ઈશ્વરની પ્રેરણા આદિથી તેઓ ત્યાં ઉત્પન્ન થતા નથી? ___ महावीर प्रभुनी उत्तर-“ गंगेया !" गांगेय |" कम्मोदएणं, कम्मगुरुयत्ताए, कम्मभारियताए, कम्मगुरुसंभायरित्ताए, असुभाण कम्माण उदएण,
SR No.009318
Book TitleBhagwati Sutra Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size40 MB
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