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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ८ ३० ९ सू० ३ प्रयोगवन्ध निरूपणम् શર बन्धः संघातः समुत्पद्यते । गौतमः पृच्छति - ' किं कारणं ? ' तत्र किं कारणम् ? को हेतुः ?, भगवानाह - ' ताहे से पएसा एगत्तीगया भवंति -त्ति, सेत्तं पप्पन्नप्पओगपच्चइए, सेत्तं सरीरबंधे ' हे गौतम ! तदा समुद्घातनिवृत्तिकाले तस्य केवलिनः प्रदेशा जीवप्रदेशाः एकत्वं गताः संघातमापन्ना भवन्ति, तदनुवृत्त्या च तैजसादिशरीरम देशानां बन्धः समुत्पद्यते, शरीखिन्ध इति पक्षान्तरे तु तैजसकार्मणाश्रयभूतत्वात् तैजसकार्मणाः शरीरिदेशास्तेषाम् बन्धः समुत्पद्यते इत्यय सेयम्, स एष उपर्युक्तः प्रत्युत्पन्न प्रयोगमत्ययिकस्तृतीयो वन्धः प्रज्ञप्तः । अथ सादिसपर्य गौतम पुनः प्रभु से ऐसा ही पूछते हैं कि ' तत्थ किं कारणं' हे भदन्त ! पंचमसमय में ही वर्तमान केवली के तैजस और कार्मण शरीर का बंध होता है - इसमें क्य कारण है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - ' गोयमा ! से परसा गतीगया भवंति ' हे गौतम! समुदघात से निवृत्तकाल में उस केवली के जीवप्रदेश संघातरूप हो जाते हैं - अर्थात् समुद्घात काल में बिखरे हुए आत्मप्रदेश समुद्घात से निवृत्त होते समय एकचित्त हो जाते हैं - सो इन्हीं आत्मप्रदेशों का अनुसरण करके तेजस आदि शरीरप्रदेशों का उनके बंध होता है । " शरीविध इस पक्षान्तर में " तात्स्थ्यात् तद्वयपदेशः " के अनुसार तैजस और कार्मण के आश्रयभूत होने से शरीर - आत्मा के प्रदेशों को तैजस कार्मणरूप कह दिया गया है सो उनका बध होता है । इस तरह से यह प्रत्युत्पन्नप्रयोप्रत्यधिक कर्म का स्वरूप कहा । अब सादि सपर्यवसित बंध का ܕܐ गौतम स्वामीना अश्न - " तत्य किं कारण १ " हे लहन्त ! यांयभां સમયમાં જ વંમ ન ( સ્થિત ) કેવલીને તૈજસ અને કાણુ શરીરના બધ થવાનુ કારણ શું છે ? महावीर अमुना उत्तर- ( गोयमा ! से परसा एगतीगया भवंति ) डे ગૌતમ! સમુદ્ધાતમાંથી નિવૃત્ત થતી વખતે તે કેવલીના જીવપ્રદેશે સંધાત રૂપ થઈ જાય છે. એટલે કે સમુદ્દાત કાળે વિખરાયેઙા આત્મપ્રદેશ સમુદ્ ઘાતમાંથી નિવૃત્ત થતી વખતે એકત્રિત થઇ જાય છે—એજ આત્મપ્રદેશાનુ अनुसर इरीने तेभने तेस माहि शरीर प्रदेशांना अंध थाय छे. " शरीर बंध ” श्मा पक्षान्तरभां " तात्स्थ्यात् तद्वयपदेशः " ना अनुसार तैनस भने કાણુના આશ્રયભૂત હાવાથી શરીરી આત્માના પ્રદેશાને તૈજસ કાણુ રૂપ કહેવામાં આવ્યા છે અને તેમનેા બંધ થાય છે, એવુ' કહેવામાં આવ્યું છે, પ્રત્યુત્પન્ન પ્રયાગ પ્રત્યયિક ધનુ' સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે,
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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