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________________ भगवतीसूत्रे ११८ णता अपि भवन्ति । एवं पर्याप्तापर्याप्त कजलचरादितिर्यग्योनिकपश्चेन्द्रियमनुष्यपञ्चेन्द्रिय श्रोत्रादि स्पर्शान्तेन्द्रियमयोगपरिणताः पुद्गलाः वर्णादितः कालादिवर्णादिपरिणता अपि भवन्ति । एवं पर्याप्तकापर्याप्तकभवनपति - वानव्यन्तर- ज्योतिषिक - वैमानिक नवयैवेयक- विजय- वैजयन्त - जयन्ता - ऽपराजितानुत्तरौपपातिकदेवपञ्चेन्द्रिय- श्रोत्रादीन्द्रियप्रयोगपरिणताः पुद्गलाः वर्णादितः कालादिवर्णपरिणता अपि भवन्तीति भावः । 'जे पज्जत्तसेवनसिद्ध अणुत्तरो० जात्र देवपंचिदिय- सोइंदिय - जाब- फार्सिदियपओगपरिणया वि ते वनभो कालवनपरिणया विजा आययसंठाणपरिणया कि ये पुद्गलाः पर्याप्तकापर्याप्त सर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिक - यावत् कल्पातीतक देवपञ्चेन्द्रिय- श्रोत्रेन्द्रियहैं वे पुद्गल भी वर्णादि की अपेक्षा काले आदिवर्णादि वाले होते हैं । इसी तरह से जो पुद्गल पर्याप्तक अपर्याप्तक जलचर आदि तिर्यग्योनि वाले पंचेन्द्रियों की, मनुष्यपंचिंद्रियों की श्रोत्रादिस्पर्शान्त इन्द्रियों के प्रयोग से परिणत हुए कहे गये हैं वे भी वर्णादि गुणों की अपेक्षासे कालादि वर्णादिवाले होते हैं । इसी तरहसे जो पुद्गल पर्याप्तक अपर्याप्तक भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिषिक, वैमानिक, नवग्रैवेयक, विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितवासी देवपंचेन्द्रि योंकी श्रोत्रादिक पांच इन्द्रियोंके प्रयोगसे परिणत हुए कहे गये हैं वे पुद्गल वर्णादिककी अपेक्षासे कालादिवर्ण वाले भी होते हैं । इसी तरहसे 'जे पज्जत्तसव्वट्टसिद्ध अणुत्तर जाव देवपंचिदियसोइंदिय जाव फासिंदियपओगपरिणया वि ते वन्नओ कालवनपरिणया विजाव आययसठाणपरिणया वि' जो पुद्गल पर्यातक अपर्याप्तक सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत पंचेन्द्रिय देवोंकी श्रोत्रइन्द्रिय यावत् આદિ વર્ણવાળાં હાય છે, ઇત્યાદિ પૂકિત કથન અહીં પણ મહેણુ કરવું એ જ પ્રમાણે ने युगसो पर्याप्त - अपर्याप्तः लवनयति, वानव्यन्तर, न्योतिषिक, वैज्ञानिक, નવગ્રેવેચક, વિજય, વૈજયન્ત, જયન્ત અને અપરાજિત અનુત્તર વિમાનવાસી દેવપ’ચેન્દ્રિયની શ્રોત્ર અદ્વિ પાંચ ઇન્દ્રિયાના યેાગથી પરિશુત થયેલા કહ્યાં છે, તે પુદ્ગલા પણુ વર્ણાદિની અપેક્ષાએ કાળા આદિ વર્ણોદિવાળાં હાય છે. એ જ પ્રમાણે 'जे पज्जतसव्वहसिद्ध अणुत्तर जाव देवपं चिंदियसोइंदिय जाव फार्सिदियपओगपरिणया विते वष्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव आययसं ठाणपरिणयाविने गते पर्याप्त भने पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपयाति કલ્પાતીત પંચેન્દ્રિય દેવાની શ્રોત્ર, ચક્ષુ, જિહવા, ઘાણુ અને સ્પર્શ, એ પાંચ ઇન્દ્રિયાના 9
SR No.009316
Book TitleBhagwati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages811
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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