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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० ० ६ ० ३ ० २ जीवक निरूपणम् ____८३७ पादिव्यापारेणैव भवति नो विस्त्रसया स्वभावेन, अन्यथा अयोगिनोऽपि कर्मवन्धापत्तिः स्यात् । गौतमस्तत्र कारणं पृच्छति-'से केणटेणं' हे भदन्त ! तत् केनार्थेन कथं तावत् जीवानां कौरचयः प्रयोगेणैव, नो स्वभावेन ? भगवानाह-'गोयमा ! जीवाणं तिविहे पयोगे पण्णत्ते हे गौतम ! जीवानां त्रिविधः प्रयोगः, प्रशसः, 'तं जहा-मणप्पओगे, वइप्पओगे, कायप्पओगे' तद्यथा-मनः प्रयोगः, मानसिकशुभाशुभचिन्तनादिव्यापारः, वचःमयोगः-शब्दोचारणादिवचनव्यापारः, कायप्रयोगश्च चेप्टा, परताडनहिंसनादिकायिकव्यापारः, 'इच्चेएणं तिविहेणं पोगेणं जीवाणं कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा' इत्यनेन उपचय होता है वह प्रयोग से ही-पुरुष आदि व्यापार से ही होता है, स्वभाव से नहीं होता है। यदि स्वभाव से हो जीवों के कर्मपुद्गलों का उपचय होना माना जाय तो अयोगि जीवों के भी कर्मबंध होने की आपत्ति आ जावेगी। अब गौतम इस विषय में कारण जानने की इच्छा से पूछते हैं कि (से केणटेणं) हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि जीवों के कर्मोपचय प्रयोग से ही होता है-स्वाभाव से नहीं होता-इसका उत्तर देते हुए प्रभु गौतम ले कहते हैं कि-(गोयमा) हे गौतम ! (जीवाणं तिविहे पओगे पण्णत्ते) जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग कहे गये हैं-(तं जहा) जो इस प्रकार से हैं-(मणप्पओगे, वइप्पओगे, कायप्पओगे) मनः प्रयोग-मानसिक शुभाशुभचिन्तन आदि विचार, वचः प्रयोग-शब्दोचारण आदिरूप वचन व्यापार, और कायप्र. योग-चेष्टा करने, दूसरों को ताडने और हिंसा आदि करने रूप शरीर का व्यापार (इच्चेएणं तिविहेणं पओगेणं जीवाणं कम्मोवचए पओ(पुरुषाहना व्यापारथी ) थाय छ, सामावि शत थता नथी. न स्माવથી જ અને કર્મપુલેને ઉપચય થાય છે એમ માનવામાં આવે તે અગિ જીને પણ કર્મબંધ થવાની વાત સ્વીકારવી પડશે તેનું કારણ onyqा भाटे गौतम स्वामी पूछे छे है (से केणडेणं) महन्त ! भा५ शा કારણે એવું કહે છે કે જેને કર્મને ઉપચય પ્રગથી જ થાય છે, સ્વભાવથી થતું નથી ? उत्तर-(गोयमा !) है गौतम! (जीवाणं तिविहे पओगे पण्णचे) वाना या प्रयोग ह छ-" तजहा" २ प्रमाणे छे-- (मणप्पओगे, वहप्पओगे, कायप्पओगे)-(१) मनप्रयाग-मानसि शुभा. શુભ ચિન્તન આદિ વિચાર, (૨) વચનપ્રયોગ–શબ્દોચ્ચારણ આદિ રૂપ વ્યાપાર, भने (3) अयप्रयोग-शारीर यष्टी, भारपीट मा ३५ शरीर व्यापार. (इच्चेएणं तिविहेण पओगेण जीवाण कम्मोवचए पओगसा णो वीससा) मा
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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