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________________ tae भगवतीसूत्र उपर्युक्तेन त्रिविधेन प्रयोगेण जीवानां कर्मोपचयः-कर्मवन्धो भवति प्रयोगेणैव, नो विस्त्रसया स्वभावेन । ' एव सम्वेर्सि पंचिंदियाणं तिविहे पओगे भाणियचे' एवं-तथैव सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां जीवानां विविधः प्रयोगः मनोवचाकायभेदेन त्रिपकारो व्यापारो भणितव्यः । 'पुढवीकाइयाणं एगविहेणं पभोगेणं' पृथिवीकायिकानां जीवानाम् एकविधेन प्रयोगेणैव कायव्यापाररूपेण कर्मोपचयो वक्तव्या, 'एवं जाव-वणस्तइकाइयाणं' एवं पृथिवीकायिकरदेव यावत्-अपूकायिकतेजस्कायिक-वायुकायिकानां वनस्पतिकायिकानामपि एकविधेन कायव्यापार लक्षणेन प्रयोगेणैव कर्मोपचयो बोध्यः । 'विगलिंदियाणं दुविहे पओगे पणत्ते' गसा, नो वीससा) इस तीन प्रकार के प्रयोग से जीवों के कर्मोपचय होता है अतः इस कर्मोपचय-कर्मबंध में कारण जीव का त्रिविधरूप प्रयोग पढ़ता है इसलिये वह कर्मोपचय प्रयोग से होता है स्वाभाव से नहीं, ऐमा मानना चाहिये (एवं सब्वेसि पंचिंदियाणं तिविहे पओगे भाणियचे ) जितने भी पंचेन्द्रिय जीव है, उन सब के यह तीन प्रकार का प्रयोग होता है (पुढवीकाझ्याणं एगविहेणं पओगेणं) पृथिवीकायिक जो एकेन्द्रिय जीव हैं-उनके एक कायप्रयोग ही होता है-उससे वे कोपचय किया करते हैं। (एवं जाव वणस्सह काइयाणं) इसी तरह से अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये एकेन्द्रिय जीव भी एक केवल कायप्रयोग से ही कर्मोपचय करते रहते हैं ऐमा जानना चाहिये । अब रहे दोडन्द्रिय तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव सो ये (विगलेंदियाणं दुविहे पओगे पण्गत्ते) इन विकलेन्द्रिय जीवों के ત્રણ પ્રકારના પ્રયોગથી છને કર્મોપચય થાય છે તેથી આ કર્મોપચયના (કર્મબંધના) કારણ રૂપ જીવના એ ત્રિવિધ પ્રયોગ ગણાય છે. તેથી જ એવું કહ્યું છે કે કર્મોપચય પ્રગથી જ થાય છે, સ્વભાવથી થતું નથી. ( एवं सव्वेसिं पंचिदियाणं तिविहे पओगे भाणियब्वे) मेरा प्रमाणे 2. न्द्रिय Galti ५ मे प्रर प्रयोग डाय छे. (पुढवीकाइयाणं एगविहेण पओगेण) पृथ्वी यि ७वाने से अभप्रयोग डाय छे. तसा ते प्रयोग द्वारा १ ४५यय ४२ छे. ( एवं जाव वणसइकाइयाण) से प्रमाणे અપૂકાય, તેજસ્કાય, વાયુકાય અને વનસ્પતિકાય, એ એકેન્દ્રિય જીવોને પણ ફક્ત એક જ પ્રગ-કાયDગ હોય છે, અને તેઓ કાયપ્રયોગથી જ કર્મો५यय ४२॥ २९ छे. (विगलेंदियाण' दुविहे पभोगे पण्णत्ते ) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय અને ચતુરિન્દ્રિય, એ વિકેન્દ્રિય, જીના બે પ્રવેગ હોય છે.
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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