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________________ २६४ भगवती पेक्षया केवलिनो विशेषतामाह-'जहा हसेज्ज वा, तहा' यथा हसेत् वा, तथा, पूर्व यथा छद्मस्थ-केवलि नोः हासादिविपये प्रश्नोत्तर प्रतिपादितं तथा तयो निंद्रादिविपयेऽपि प्रश्नोत्तरं विज्ञेयम् , परन्तु ‘णवरं-दरिसणा वरणिज्जस्स कम्मरस उदएणं निहायति वा, पयलाईति वा, सेणं केवलिस्स नत्थि, अन्नं तं चेत्र' नवरम्-विशेपस्तु पुनरयम्-छद्मस्थमनुष्या दर्शनावरणस्य कर्मणः उदयेन निद्रायन्ते वा, प्रचलायन्ते वा, तत् दर्शनावरणं कर्म केवलिनो नास्ति, अतश्छद्मस्थवत् केवली नो निद्रायते वा, मचलायते का, अन्यत् सर्व तदेव पूर्ववदेव बोध्यम् । में छद्मस्थ की अपेक्षा से क्या विशेषता है वह सूत्रकार (जहा हसे. ज्ज वा तहा) इत्यादि सूत्र पाठ द्वारा प्रकट करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार से पहिले छद्मस्थ और केवली के हास आदि के विषय में प्रश्नोत्तर प्रतिपादित किये जा चुके हैं उसी तरहसे इन दोनों के निद्रा आदि के विषय में भी प्रश्नोत्तर जान लेना चाहिये । (नवरं) परन्तु जो पहिले प्रश्नोत्तर की अपेक्षा यहां के प्रश्नोत्तर में विशेपता है वह (दरिसणावरणिज्जस्ल कम्मस्स उदएणं निहायन्ति, पयलाइंति वा से णं केवलिस नस्थि-अन्नं तं चेच) वह दर्शनावरणीय कर्म के उदय और उसके अभाव को लेकर है-तात्पर्य कहने का यह है कि निद्रा और प्रचला का अनादर्शनावरणीय कर्म के उदय में होता है-अतः इसके उदय के कारण छद्मस्थ संसारी जीव निद्रा और प्रचला वाले होते हैं परन्तु यह दर्शनावरणीय कर्म का उदय केवली के होतो नहीं है क्यों कि यहां पर दर्शनावरणीय का संपूर्ण रूप से आत्यन्तिक क्षय हो जाना છદ્રસ્થમનુષ્ય નિદ્રા પણ લે છે અને પ્રચલા પણ લે છે. છદ્મસ્થ કરતાં કેવલી भगवानमा शी विशिष्ट डाय छ ते सूत्रारे "जहो हस्सेज्ज वा तहा त्यात સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રકટ કર્યું છે. જેવી રીતે છદ્મસ્થ અને કેવલીના હાસ્યાદિકના વિષયમાં પ્રશ્નોત્તરે આ સૂત્રમાં આગળ આપવામાં આવેલા છે, એ જ પ્રમાણે ते मन्नन निद्रा कोरेना विषयमा ५५] प्रश्नोत्त। समय सेवा " नवरं" પણ પહેલાનાં પ્રશ્નોત્તર કરતાં આ પ્રશ્નોત્તરીમાં જે વિશિષ્ટતા છે તે નીચેના सूत्रमा मतावाम मावी छ-( दरिसणावणिज्जस्स कम्मस्व उदएणं निहायंति, पयलायति वा से णं केवलिस्स नत्थि-अन्नं तं चेत्र) निद्रा भने प्रयला भाव વાનું કારણ દર્શનાવરણીય કર્મને ઉદય ગણાય છે, તેથી તેને નિદ્રા અથવા પ્રચલા આવે છે. પણ કેવળજ્ઞાનીને દર્શનાવરણીયકમને સર્વથા ક્ષય થઈ ગયે
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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