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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ५ १० ४ सू०२ केवलोहालादिनिरूपणम् २१५ गौतमः पुनः पृच्छति-'जीवेणं भंते । निदायमाणे वा, पयलायमाणे वा का कम्मप्पगडीओ बंधइ? हे भदन्त ! जीवः खलु निद्रायमाणो वा, निद्रां लभमान: प्रचलायमानो वा ऊोस्थित निद्रास्वरूपां प्रचलां लभमानः कति कर्मप्रकृती: बध्नाति ? भगवानाह-'गोयमा ! सत्तविह बंधए वा, अविह वधए वा' हे गौतम ! सप्तविधवन्धको वा, सप्तमकारककर्मवन्धको वा भवति, अष्टविधवन्धको वा -अष्टमकारककर्मवन्धको वा भवति, ‘एवं जाब-वेमाणिए ' एवम् उक्तजीवा भिलापवत्-यावत्-वैमानिकाः नैरयिकादि-वैमानिकान्ता आलापका विज्ञेयाः । किन्तु जीवामिलापापेक्षया नैरयिकाघालापके विशेषता पूर्ववदेव प्रतिपादयितुमाह-'पोहत्तिएसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो' इति । पृथक्त्वेषु - पृथक्त्व है। इस लिये वे निद्रा और प्रचलावाले नहीं होते हैं। इस तरह से और सब कथन पहिले जैला ही जानना चाहिये। ___ अव गौतम प्रभु से पुनः पूछते हैं कि-(जीवे णं भंते ! निदायमाणे वा पयलायमाणे वा कइ कम्मस्लपगडिओ बंधइ) हे भदन्त ! निद्रा लेता हुआ तथा प्रचला संपन्न हुआ जीव कर्म की कितनी प्रकृतियों को बन्ध करता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं कि-(गोयमा!) है गौतम.! ( सत्तविहबन्धए वो अट्टविहबन्धए व) ऐसा जीव कर्म की सात प्रकृतियों का पंध करता है । अथवा आठ प्रकृतियों का बंध करता है। (एवं जाव माणिए) इसी तरह से अर्थात् जीवाभीलाप की तरह से नैरयिक से लेकर वैमानिक देवों तक आलापक जानना चाहिये। बहुवचन में जो विशेषता है उसे दिखलाने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि (पोहत्ति. હોય છે. તેથી તેના અભાવે કેવલી ભગવાનમાં નિદ્રા અને પ્રચલાને અભાવ હોય છે. બાકીનું સમસ્ત કથન આગળ મુજબ સમજવું ગૌતમસ્વામીને પ્રશ્નजीवेणं भंते । निदायमाणे वा पयलायमाणे वा कइकम्मपगडीओ बंधई १) महन्त । નિદ્રા લેતે તથા પ્રઘલાયુક્ત જીવ કમની કેટલી પ્રકૃતિને બંધ બાંધે છે? महावीर प्रभु ते प्रश्न उत्तर भापत ४९ छे-(गोयमा !) गौतम (सत्तविहवंधए वा अविहबधए वा ) मेव। 4 भनी सात प्रतियान। जय धेि छ अथवा 18 प्रतियोन। म मांधे छ. ( एवं जाव वेमाणिए) જીવાભિલાપની જેમ (જીવ વિષયક પ્રશ્નોત્તરોની જેમ) જ નારકેથી વૈમાનિક देवो पर्य-तना मासा (प्रश्नोत्तरे। ) सभ देवा. બહુવચનમાં જે વિશેષતા છે તે દર્શાવવાને માટે સૂત્રકાર કહે છે કે (पाहत्तिएमु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो) 4 विषय मक्यनवा माता
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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