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________________ - - ममेयचन्द्रिका टीका श.३ उ. ३ म. ४ जीवाना एजनादिक्रियानिरूपणम् ५७१. उदीरिता, पैदिता, निर्जीर्णा एण्यत्काले अकर्मावापिभवति, तत् तेनार्थेन मण्डिपुत्र ! एव मुच्यते, यावच्च खलु स जीवः सदा समितं नो एजते यावद-अन्ते अन्तक्रिया भवति ॥ सू. ४ ॥ टीका-मूत्रे एजनादि रहितो जीवोऽनारम्भादि क्रियामु प्रवर्तते तत्र चा प्रवर्तमानो नो प्राणादीनां दुःखापनादिषु उपतिष्ठते एव प्रकारेण शैलेशीकरणे सति क्रिया प्रथमसमयमें चद्धस्पृष्ट होती है, द्वितीयसमय में वेदित-अनुभवित होती है अर्थात् उद्य में आती है-तृतीय समय में उसकी निर्जरा हो जाती है। इस तरह (सा पद्धो, पुट्ठा उदीरिया, वेड्या निजिण्णा) बद्ध स्पृष्ट, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण वह क्रिया (सेयकाले अकम्मं वावि भवइ) भविष्यत्काल में अकर्मरूप भी हो जाती है। (से तेणटेणं मंडियपुत्ता! एवं घुच्चद, जावं च णं से जीवे सया समियं नो एयइ जाव अंते अंतकिरिया भवइ) इस कारण हे मंडितपुत्र ! मैंने ऐसा कहा है कि जबतक वह जीव सदा समित रागादिरूप हो कर नहीं कपता है अर्थात् एजनादि क्रिया से रहित हो जाता हैयावत् उसकी अन्तसमयमें अन्त क्रिया-सकलकर्मक्षयरूप मुक्ति होती है ।। टीकार्थ-सूत्र में यह प्रकट किया गया है कि एजन (कापन) आदि क्रिया रहित जीव आरंभादि क्रियाओ में प्रवृत्ति नहीं करता है । जव वह इन आरंभादि क्रियाओं में प्रवृत्ति नहीं करता है तो उसके द्वारा प्राणी आदिकों को (दुःख देना) आदि नहीं किये जाते બદ્ધ સ્પષ્ટ થાય છે, દ્વિતીય સમયે વેદિત (અનુભવિત) થાય છે. એટલે કે ઉરમાં આવે छ भने तृतीय सभये तनी नि। थाय छे. माशते (सावद्धा, पुट्टा, उदीरिया, वेडया, निजिण्णा) मा शत पY४, हस्त, हित भने नि ते ठिया (सेयकाले अकम्मं वावि भवइ) विध्यामा मभ३५ ५ मनी जय छे. (से तेणढणं जाव मंडियपुत्ता ! एवं बुच्चइ, जावं च णं से जीवे सया समियं नो एयइ जाच अंते अंतकिरिया मवह) भलितपुते रणे में मेधु घुछे કે જે જીવ સદા સમિતરાગાદિથી યુક્ત બનતું નથી–એટલે કે જે જીવ એજનાદિ ક્રિયાથી રહિત થઈ જાય છે, તે (યાવત) તે અન્તકાળે સકળ કર્મોને ક્ષય કરીને भुक्षित प्राप्त ४२ छे. ॥ सू.४ ॥ સૂત્રમાં એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે એજન (કંપન) આદિ ક્રિયારહિત જીવ આરભાદિ ક્રિયાઓ કરતું નથી. આ રીતે આરંભાદિ ક્રિયાઓ નહીં કરનારા તે જીવ દ્વારા પ્રાણ આદિને દુઃખ આદિ દેવાતું નથી. આ પ્રમાણે
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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