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________________ स्थानान्नस्त्र क्रामति=नोल्लङ्घयति जिनाज्ञाम् । तानि स्थानान्याह गाथया-तद्यथा-वेदनावैयावृत्त्ये-वेदनाक्षुदना, वैयावृत्त्यगुरुशुश्रूपा वेदना च वैयाकृत्यं चेति समाहारः, तस्मिन् , सुवेदनारूपे गुर्वा दिवैयारत्त्यरूपे च कारणद्वये सति आहारमा. हरन निर्ग्रन्थो जिनाा नातिक्रामति । १ । २ ॥ तथा- ईर्थाय-ई-गमन, तदर्थाय-तद्विशुद्धयर्थम् । चुभुक्षितो ह्यशक्तो भवति । न चाशक्त ईर्याविशुद्धिं कर्तुं शक्नोतीति भावः ॥ ३ ॥ च=पुनः संयमार्थाय-संयमा=पृथिवीकायादिभेदैः सप्तदश विधः, तस्य अर्थाय=तन्निमित्तम् ॥ ४ ॥ तथा-माणत्त ये प्राणाः उच्छ्वाजिनाज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करता है वे छह कारण ऐसे हैं एक वेदना और दूसरा वैयावृत्य २ जर क्षुधा वेदना रूप कारण उपस्थित होता है तब श्रमण निर्ग्रन्थ उसकी उपशान्तिके निमित्त आहार ग्रहण करता है इस स्थिति में वह जिनाज्ञाका विराधक नहीं होताहै । इसी प्रकार गुरु की शुश्रूषा (सेवा) करने रूप वैयावृत्ति रूप कारण जब उपस्थित हो जाता है तब वह यदि आहार को ग्रहण करता है तब भी वह जिनाज्ञा का विराधक नहीं है इसी प्रकार जब ईर्यापथ की विशुद्धि होने रूप कारण उपस्थित हो जाता है तब भी यदि वह श्रमण निन्ध आहार ग्रहण करता है तो वह जिनाज्ञा का विराधक नहीं होता है क्योंकि जो वुभुः क्षित (भूखा) होता है वह अशक्त हो जाता है अशक्त से ईर्यापथ की विशुद्धि यथावत् हो नहीं सकती है अतः उस ईर्यापथ की विशुद्धि करने के लिये यदि वह आहार लेता है तो जिनाज्ञा का विराधक नहीं होता है इसी प्रकार यदि श्रमण निर्ग्रन्थ पृथिवीकायादिक की रक्षा करने रूप १७ प्रकार के संयम के निमित्त आहार ग्रहण करता है तो (૧) વેદના--જ્યારે સુધાવેદના રૂપ કારણ ઉપસ્થિત થાય છે ત્યારે તેના ઉપશમનને માટે આહાર ગ્રહણ કરતે સાધુ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી. (૨) વૈયાવૃત્ય--ગુરુની શુશ્રુષા કરવા રૂપ કારણ જ્યારે ઉપસ્થિત થાય, ત્યારે જે તે આહાર ગ્રહણ કરે તે જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતો નથી. (૩) ઈર્યાપથની વિશુદ્ધિ રૂપ કારણ જ્યારે ઉપસ્થિત થાય ત્યારે પણ જે તે શ્રમણ નિબથ આહાર ગ્રહણ કરે તો તે પરિસ્થિતિમાં પણ તે જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતા નથી, કારણ કે જે સાધુ ભૂખ્યો હોય છે તે અશક્ત બની જવાને કારણે ઈર્યાપથની વિશુદ્ધિ યોગ્ય પ્રકારે જાળવી શકતું નથી. તેથી આ ઇર્યાપથની વિશુદ્ધિ કરવાને નિમિત્તે જે તે આહાર લે તો જિનાજ્ઞાનું ઉલ્લંઘનકર્તા ગણાતું નથી.
SR No.009310
Book TitleSthanang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages773
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size43 MB
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