SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 488
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूमाता प्रासादिभिः म यस्मिन नन्दयन गृम् , तस्य हेतोः करणात् पूर्वोक्ता रिया मयूबते, 'मयसम्म हेउ पनि शयनम्य हेतोः-शराय ते प्रयुञ्जते 'अन्नेसिया रिम्बम्नान अन्येपाम्-अन्नानिरिक्तानो विरूपरूपाणामनेकविद्यानाम् 'कामभो. गानामभोगान म् उ हतो: ' पति' प्रयुञ्जते 'ते अणारिया' ते अनार्या: 'विपटियन्ना विपतिपन्ना 'निरिच्चंद्र' तिरिश्चीनाम् ‘ते विज सेवेति' ते विद्या सेवग्ने, वस्तुनः उमा विद्याः परलोकपनिकलतया नात्मकल्याणाय भवन्ति एतारमा नेनार्गः 'कालमाने कालं किया' कालमासे कालं कृत्वा 'अभयराई अन्यतरेषु 'प्रागुरियाई' आमुरिकेपु-नाम सेप्चिति यावत् 'किल्बिसियाई' किल्लिषिकेषु 'टाणाई' स्याने पु 'उत्तारो मति' उपपत्तारो भवन्ति, 'तमो वि विप्पमुचमाणा' ननोऽपि निममचन्ता वनकर्मणस्तत्र फलमुपभुज्य-ततो विच्युति माग्नुमन् सन्तः 'भुजो' भूयः-पुनरपि एलम पत्ताए' पलमूकवाय-स्वाभाविकमूकतामाप्तये तया'तम अंपयाप तमन्यस्याय-नात्यायचाय पञ्चायति' प्रत्यायान्ति-पुनः पुनः मंमारे एक जन्म गृहन्ति ।मु०१७३०॥ ___पाप नास्ति परलोकम्य चिन्ना, स हि-ऐहिकमेव सुरवं बहुमन्यमानोऽनेक विशं पारक्रियां कृन्ना-पनमन यति, तदेव धनं सुमनसा धनमिति मनुते स पार फर्मानुष्ठान परिगणयनि मन-से एगइओ आयहडं वा जाइहेउं वा सयणहे उंवा अगारहउँ वा परिवारहेडं । नायगं वा सहवासियं वा णिस्साए मा अन्य अनेक प्रकार के कामभोगों के हेतु प्रयोग करते हैं। किन्तु ये निशा आत्महिन मा परलोक से निकल हैं। इनका सेवन करने वाले भ्रम पड़े हैं ग्नार्य पुरःप मृत्यु के अवसर पर मरगा करके असुर मंधी मिमियपक, म्यानों में उत्पन्न होते है। जय वहां से अपने किये काम का फल भोग कर चरते हैं तो पुनः जन्म से गंगे और अंय . प में जन्म लेने और बार-बार जन्म-मरण करते हैं ॥१५|| મજ અનેક પ્રકારના કામોના કાન પ્રોગ કરે છે. પરંતુ આ Pri. ५.11५२१ ५१ प्रति . तनुलेपन ४२पापा બમાં પ૦ છે. ગઝનમ ૫૩ મૃત્યુના અવસરે મરણ પામીને અસુર भर न . ४. ५ श्री योगी आते ४३ न भा ने माना 2 . .. ... .. १४३७.
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy