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________________ दोहा इन्हें आदि आचार्य में, गुण पावन है सार। जे भवि इनपद थुति करें, ते उतरें भवपार।। ऊँ ह्रीं श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 12. बहुश्रुतभक्ति भावना पूजा (अडिल्ल छन्द) एकादश अंग पूरब चौदह धारजी, शिष्यन को जु पढ़ावें तप के भारजी। ऐसे गुणके धार उपाध्याय सारजी, पूजों इन पद थापन कर थुति धारजी।। ऊँ ह्रीं श्री बहुश्रुतभक्तिभावना ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ___ऊँ ह्रीं श्री बहुश्रुतभक्तिभावना ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्री बहुश्रुतभक्तिभावना ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। (मुनियानन्द की चाल) नीर शुभ निर्मलो, गंगको लाइये, कनकझारी भरों, भली थुति गाइये। तीर्थपददाय सुन, लोभ उर आयजी, पूजिहों बहुश्रुत भाव मन काय जी।। ऊँ ह्रीं श्री बहुश्रुत भक्ति भावनायै जलम् निर्वपामीति स्वाहा। नीर घसि बावनो, चन्दना सारजी, भक्ति कर कनक के पात्रमधि धारजी। तीर्थपददाय सुन, लोभ उर आयजी, पूजिहों बहुश्रुत भाव मन काय जी।। ॐ ह्रीं श्री बहुश्रुत भक्ति भावनायै चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा। अक्षता समुज्ज्वला खण्ड बिन सारजी, मुक्तिका-समान शुभ पात्र में धार जी। तीर्थपददाय सुन, लोभ उर आयजी, पूजिहों बहुश्रुत भाव मन काय जी।। ॐ ह्रीं श्री बहुश्रुत भक्तिभावनायै अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 913
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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