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________________ ये तप द्वादश जान, दुविध महा अघ के हरा कर्मन वज्र-समान, मैं पूजों जल आदि ।। ऊँ ह्रीं श्री द्वादशतपोभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला बेसरी (छन्द) जा, तप कर हरे अध सारा, होयसकल कर्मनते न्यारा । ये तप परभव के सगसाथी, ये तप कर्मदलन को हाथी | तप ही भवदधि नाव बताया, तपबलतैं सबने शिव पाया तप की अग्नि दहै विधिकाठा, तपतें रहे नहीं अरि आठा। तप की चाह करें सुरपति से, तपकों राज तजें नरपति से। तप को जजे वो हि तप पावे, तप बिन प्राणी जगत भ्रमावे || तप दे कल्पवृक्ष मन चाया, तप आगम में बन्धु बताया।। तप को तपें कीर्ति को पावें, कनक जिसो बन्हीं संग थावे ॥ तपको चहे चित्त भर प्रानी, तपको करे तिनै धुनि जानी। तपको पूजे सो तप चेरा, तप धारें सो साहिब मेरा।। मैं तो तप की सेव कराऊं, कब तप मिले भावना भाऊं। जबलों मिले नहीं तप त्राता, तबलों मैं तप पूजों भ्राता । तप का शरण भवान्तर पाऊं, तप को भव भव में सिर नाऊं। तप ही तें गुरु देव कहावे, तप जगबन्धु सकल सुख पावे ॥ दोहा तरुणपने तप जे धरें, तिरें नेम जिन जेम । तातें मैं तपकों नमों, वसु द्रव ले धर प्रेम। ऊँ ह्रीं श्री तपोभावनायै पूर्णाघ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 888
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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