SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 884
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अक्षत अखण्डित धवल नखसिख, शुद्ध गन्ध मई कहै। धरि सुभग पातर भावनातें, आपने कर में लहै।। पद अखय पावन चाह मेरे, तास यों मन भाय है। मैं जजों शुध तप भावना को, तीर्थपद की दाय है।। ॐ ह्रीं श्री तपोभावनायै अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। फूल चांदी कनक के करि, तथा सुर तरु के सही। करि माल नीकी शोभदाई, भ्रमर गुंजत गंध मही।। तिस देख कम्पै मदन को उर, यह चढ़ी जिनपाय जी। मैं जजों शुध तप भावना को, तीर्थपद की दाय है।। ऊँ ह्रीं श्री तपोभावनायै पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा। नैवेद्य षटरस सार मोदक, तुरत के बनवाय जी। तिस देख उर अनुराग उपजे, क्षुधारोग नसाय जी।। तब होय निर्वाछक स्थिर हो, ध्यान स्थिर थाय है। मैं जजों शुध तप भावना को, तीर्थपद की दाय है।। ऊँ ह्रीं श्री तपोभावनायै नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा। करि दीप मणिमय नाश तम को, कनक थाली में धरों। कर आरती शुधभाव सेती, भक्ति बहु मन में करों।। ताफलै तुरत अज्ञान जावे, ज्ञान परगट भाय है। मैं जजों शुध तप भावना को, तीर्थपद की दाय है।। ऊँ ह्रीं श्री तपोभावनायै दीपम् निर्वपामीति स्वाहा। 884
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy