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________________ सोरठा ज्ञानाभ्यास सदीव, सुखदाई संसार को। तातें कर भवि जीव, जो चाहे समभाव को। ऊँ ह्रीं श्री ज्ञानोपयोग भावनायै पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा। 5. संवेग भावना पूजा अडिल्ल यो जग दुखभण्डार, रोगशोकै भर्यो, ताको लख भवि जीव, भयानक चित कर्यो। भवदुखतें भय खाय, विरक्ति तनतें करे, सो संवेगता थाप, जजों भव-तप हरे।। ऊँ ह्रीं श्री संवेग भावना ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्री संवेग भावना ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्री संवेग भावना ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। (बेसरी छन्द) क्षीरोदधि का जल ले आई, कनकझारि भर चित हरषाई। भाव संवेग पूज हों भाई, भव दुख फेर होय ना आई।। ऊँ ह्रीं श्री संवेग भावनायै जलम् निर्वपामीति स्वाहा। चन्दन नीर थकी घस लाया, शुभ पातर धरि अति हरषाया। भाव संवेग पूज हों भाई, ताफल जग आताप नसाई। ऊँ ह्रीं श्री संवेग भावनायै चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा। अक्षत मुक्ताफल सम प्यारे, हरष धारि पातर में धारें। भाव संवेग पूज हों भाई, ताफल अक्षय पद उपजाई। ऊँ ह्रीं श्री संवेग भावनायै अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 871
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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