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________________ समुच्चय पूजा (त्रिभंगी छन्द) यह सोलहकारण भवदधितारण, काज सुधारण गुणधारी। यह पाप नशावे, शुभ फल लावे, ध्यान बढ़ावे शिवकारी।। तीर्थंकर पद दे जगथुति फलजे, पूजो भवि ते, हित भारी। मैं मनवचकाई, यह गुन भाई, थापन लाई मदटारी।। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणानि अत्र अवतरत अवतरत सम्वौषट् आह्वाननम्। ____ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणानि अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणानि अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। गीता छन्द तन कर पवित्र सुधार वसु तर, भक्ति मनवच लायजी। ले कनक झारी रतन जडित सु, चित्त में हरषाय जी।। भर नीर गंगा तनों निरमल, गन्ध तँह अधिकाय है। मैं जजों षोड़शभावना शुभ, तीर्थपद की दाय है।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्यः जलम् निर्वपामीति स्वाहा।।1। ले बावनों चन्दन सु निरमल, नीरते घसि सारजी। धर कनकपातर भाव शुभ करि, सकल मद को मारजी।। कर काय मनवच शुद्ध परिणति, भक्ति उर बहु लाय है। मैं जजों षोड़शभावना शुभ, तीर्थपद की दाय है।। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्यः चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।।2।। उज्ज्वल अखंडित बीन नखशिख, लाइये हितकारने। बहु गन्धजुत शुभ धोय अक्षत् महा पुनिफल धारने।। 832
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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