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________________ गीता यह वरत वन्हीं कर्मवन को, पाप 'कुठार जी। अशुभ घनका पवन दीरघ, मिथ्यात्वतम रविसार जी । करणकरि का हरि समाना, मन कपी को श्रृंखला।। शुभध्यान मन्दिर, नाव भवदधि, व्यसनमल जेता भला॥6॥ चौपाई छन्द यह व्रत करे विनयजुत कोय, तो चउगति भरमन नहिं होय। पूजे यह व्रत मन वच काय, जगत पूज्य पद सा जिय पाय॥7॥ भुजंगप्रयात छन्द यह बरत सारं, हरे पापभामं, यह वरतनीका, हरे शोक जीका । यह वरत जूना, करे दूर खूना, यह वरत प्यारा, करे पाप न्यारा ॥ 8 ॥ छन्द त्रिभंगी जो यह व्रत ध्यावे, नव निधि पावे, पुण्य बढ़ावे, अघ भानी। यह व्रत सुखदाई, देत बड़ाई, सब जिय भाई, हितदानी।। यह वरत प्रभावैं, पूज्य कहावै ज्ञान बधावै, शिवकारी। यह वरत सुमित्ता, कर दे चित्ता, महा पवित्ता, भवतारी॥9॥ मुनियानंद की चाल लखो इस वरत की उपमा है घनी, कही जिनदेव निजवाणि सब भनी। तनिक सी यहाँ कही राग व्रत-कारने, सुनो भव्य करो यह वरत दुःख टारने॥10॥ ॥ पुष्पांजलि क्षिपेत्। 831
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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