SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्वोपार्जित कर्म उदय सों, घोर दरिद्य सतावें। लक्ष्मीहीन विमोही नर नित, तीव्र महादुःख पावें।। शान्तिनाथ के पद-पंकज जो, मन-मन्दिर में धारें। मुक्तिवधू के कन्त जिनेश्वर, लोकालोक निहारें।।5।। ओं ह्रीं दारिद्योद्भवोपद्रवनिवारकाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वामीति स्वाहा। भीमभगन्दर कुष्ठ जलोदर, आदिक रोग घनेरे। व्याधि उपद्रव कर्म-विनाशन, हेतु जजों पद तेरे।। शान्तिनाथ के पद-पंकज जो, मन-मन्दिर में धारें। मुक्तिवधू के कन्त जिनेश्वर, लोकालोक निहारें।।6।। ओं ह्रीं भीमभगन्दरगलितकुष्ठगुल्मरक्त पित्तवातकफस्फोटकाधु पद्रवनिवारकाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। इष्ट वियोग अनिष्टसंयोगे, जीव महादःख पावे। निजपरिणति को भूले मोही, आरत रौद्र सतावे।। शान्तिनाथ के पद-पंकज जो, मन-मन्दिर में धारें। मुक्तिवधू के कन्त जिनेश्वर, लोकालोक निहारें।7॥ ओं ह्रीं इष्टवियोगानिष्टसंयोगोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। निजसेना वा परसेना कृत, घोर उपद्रव आवे। धर्माराधन-ध्यान-विमुखजो, प्राणि महादःख पावे।। शान्तिनाथ के पद-पंकज जो, मन-मन्दिर में धारें। मुक्तिवधू के कन्त जिनेश्वर, लोकालोक निहारें।।8। ओं ह्रीं स्वचक्रपरचक्रोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 81
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy