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________________ तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। इति चतुर्थवलयचतुःषष्टि कोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्। मन के विकार सब नाशन हेतु तेरी, पूजा प्रशान्ति करती लगती न देरी। हे शान्तिनाथ भगवन ! भवतापहारी, करता प्रणाम तुमको अघ-नाश-कारी॥1॥ ओं ह्रीं मानसिकपापोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। वाचा प्रयत्नकृत दोष निवारने को, पूजा समर्थ भवि जन्म सुधारने को। हे शान्तिनाथ भगवन ! भवतापहारी, करता प्रणाम तुमको अघ-नाश-कारी।।2।। ओं ह्रीं वाचनिकपापोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। कायाकुठार-कृत पाप-प्रणाश-कारी, अर्चन सशक्त तव नाथ प्रदोषहारी। हे शान्तिनाथ भगवन ! भवतापहारी, करता प्रणाम तुमको अघ-नाश-कारी।।3।। ओं ह्रीं कायिकपापोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। राज्यश्री, पुर, गेह, त्याग सों, होय उपद्रव भारी। उनके नाशन हेतु प्रभु की, पूजा मैं विस्तारी॥ शान्तिनाथ के पद-पंकज जो, मन-मन्दिर में धारें। मुक्तिवधू के कन्त जिनेश्वर, लोकालोक निहारें।।4।। ओं ह्रीं राजलक्ष्मीपुरराज्यगेहपद भ्रष्टोद्भवोपद्रव निवारकाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 80
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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