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________________ नाना प्रश्नों के क्रम में सुखदुख हानि लाभ अरु जन्ममरण। त्रयकाल वर्ति धनधान्य पराजय, विजय कर्मफल का वरणन।। जिसमें रहता वह दशम प्रश्न-व्याकरण अंग कहलाता है। नित पढ़े पढ़ावे उपाध्याय, यह धर्म सुरुचि प्रकटाता है।। लक्ष नवति त्रय अरु सहस, सोलह पद संपन्न। प्रश्न व्याकरण ज्ञान से, रहे न जीव विपन्न।।10॥ ऊँ ह्रीं प्रश्न व्याकरण जिनागम पठन पाठन गुण भूषिताय उपाध्याय परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। शुभ अशुभ कर्म की तीव्र मन्द, मध्यम फलदाता शक्ति प्रबल। जो द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव, अनुरूप बंध अनुभाग सबल।। कर्मानुसार प्रतिफल वर्णन कर, जग को सुपथ दिखाता है। जैसी करनी, वैसी भरनी, सु विपाक सूत्र दरशाता है।। एक कोटि, चौरासि लाख, पद समृद्ध श्रुतज्ञान। मुनि विपाक सूत्रांग धरि, करै कर्म की हान।।11। ॐ ह्रीं विपाक सूत्र ज्ञान पठन पाठन गुण भूषिताय उपाध्याय परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। दृष्टिवा अंग जग में प्रचलित त्रय शत त्रेसठ, मिथ्यामत, सन्मति के हरता। हिंसा, परपीड़न धर्म कहें, जो नरकादिक दुर्गति करता।। उनका खंडन कर, आतमधर्म, सत धर्म सीख देने वाला। दृष्टी प्रवाद पर भेद रूप, इक भेद “पूर्व-चौदह' वाला।। एक पूर्वगत भेद के चौदह भेद सुजान। 792
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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