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________________ व्युत्सर्ग तपश्चर्या का भी, आचार्य सतत अभ्यास करें। इसका आशय अपने शरीर से ममताभाव निकास करें।। पुद्गल अणुओं से बनी देह, का चेतन से कैसा नाता। इसका श्रद्धान जगाने में, जीवन सारा ही ढल जाता।। ऊँ ह्रीं व्युत्सर्ग तपोगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥11॥ आचार्य मुनीश्वर ध्यान रूप, तप का अखंड अभ्यास करें। हो निरारम्भ, सारे परिगृह से छूट, आत्म का ध्यान करें।। ज्ञानी ज्ञाता अरू ज्ञेय बीच, सारे विकल्प जब मटि जाते। एकाग्र चित्त से चिन्तन ही, आतम अनुभूति करा पाते।। ऊँ ह्रीं ध्यान तपोगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।12। दश धर्म धारें उत्तम क्षमा गुण, जैनाचार्य यतीश। क्रोध दमन कर, सौम्यता समता लहें मुनीश।। ऊँ ह्रीं उत्तमक्षमा धर्मगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥13॥ ज्ञान प्रतिष्ठा आदि का, मान तजें मुनिराज। उत्तम मार्दव धर्म की, मृदुता का यह राज।। ॐ ह्रीं उत्तम मार्दव धर्मगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।14॥ मन च तन की एकता, धरै कुटिलता छोड़। उत्तम आर्जव धर्म को, नमूं सदा कर जोड़।। ऊँ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्मगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥15॥ 783
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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