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________________ पट अन्तरंग तप में पहिला, प्रायश्चित तप तपते मुनिवर। जाने अनजाने किसी जीव को, यदि पीड़ा पहुंची दुखकर। प्रायश्चित करके भूल चूक, का प्रक्षालन, आचार्य करें। आचार्य श्रेष्ठ वे हैं महान, ,जो दोष दलन में दृष्टि धेरै।। ऊँ ह्रीं प्रायश्चित तपोगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥7॥ सबके प्रति समता भावधरें, नित सरल स्वभावी हों मुनीश पूजक हो या कि विरोधी हो, दोनों में समदृष्टी यतीश ।। सम्यक दृग ज्ञान चरित धारी, मुनियों के प्रति हों विनयवान । आचार्य परम पद प्राप्त सदा, रत्न त्रय मुनि सम्मानवान।। ऊँ ह्रीं विनय तपोगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥8॥ आचार्य संघपति होकर भी, ऊंची पदवी के मान रहित । जो वयोवृद्ध या रोगग्रसित, उन मुनिजन की सेवा में रत ।। इक ओर शिष्यगण मुनिजन को, प्रायश्चित विधि देने वाले। पर धर्म वृद्धि का भाव लिये, उनकी सेवा करने वाले ऊँ ह्रीं वैयावृत्ति तपोगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥9॥ ज्ञानी होकर भी ज्ञानवृद्धि, का भाव लिये स्वाध्याय करें। जिन आगम बांचें, प्रश्न करें, तत्वों का चिन्तन चित्त धरें ।। पुनि बार-बार उच्चारण से, जिन वाणी को कंठस्थ करें। धर्मोपदेश, यो पांच रूप, स्वाध्याय सुगुरु आचार्य करें। ऊँ ह्रीं स्वाध्याय तपोगुण भूषिताय आचार्यपरमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।।10 782
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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