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________________ निर्ग्रथनाथ के साथ चलें, वसु मंगल द्रव्य पुनीत महा। ध्वज घंटाझालर छत्र चमर, कलशादि सभी द्युतिवंत महा।। सारे वैभव को त्याग प्रभो, निरग्रंथ दिगम्बर वेष धरा। वैभव ललचाते, भटकाते, इस हेतु निजातम ध्यान धरा।।34।। ऊँ ह्रीं अष्टमंगलद्रव्यरूपादिव्यातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। चौदह अतिशय देव कृत, करें अमित श्री वृद्धि। जिनके मन जिनवर वसें, हो सब कारज सिद्धि।। ॐ ह्रीं सुरगण चतुर्दशातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। अष्ट प्रातिहार्य तरुवर अशोक की छांह तले, प्रभु आतम ध्यान लगे करने। इस हेतु वृक्ष भी शोक रहित वन, लगा नाम सार्थक करने।। हे वीतराग तेरी संगत से, तरु भी जब सुख पाते हैं। चैतन्य प्राणि के क्या कहने, यदि वे विराग बन जाते हैं।।35।। ॐ ह्रीं अशोक तरु प्रातिहार्य गुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। माणिक्य खचित सिंहासन पर, मोती मणि कांति बिखेर रहे। स्वर्णिम आभामय देहवान, प्रभु उस पर शान्त विराज रहे।। मानों सुर सरिता के जल में, सुरगिरि से आया स्वर्णकलश। वह दिव्य अलौकिक सुन्दरता, द्विगुणित करता हो इंद्रधनुष।।36।। ॐ ह्रीं सिंहासन प्रातिहार्यातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। 775
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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