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________________ उस मंद सुगंधित पवन बीच, लहराते झूम उठे तरुवर। होने लगती गन्धोदक की एन वृष्टि सुखद, शीतल मनहर।। सन्तप्त हृदय को शान्तिप्रदा, पृथिवी की प्यास शमनकारी। स्वसमय स्वरीति सब लाघ गये जिन धमी प्रभु की बलिहारी।।30॥ ऊँ ह्रीं गन्धोदकवृष्टि रूपातिशयगुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। कांटो की तो नित सही नियति, फूलों के संग जीवित रहना। जग का स्वरूप कुछ ऐसा है, सुख के संग, दुख लहरी बहना।। पर, जिनवर के पथ पर प्रसून सजते, कण्टक हट जाते हैं। कण्टक विहीन धरती तल पर, पगबाधा भय भग जाते हैं।।31॥ ऊँ ह्रीं निष्कण्टकभूमि रूपातिशयगुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। जिनवर के प्रति श्रद्धापूरक, जो अतिशय सुरगण रचवाये। उनसे सब सृष्टि हुई हर्षित, जिनवर सब के मन में भाये। सब देवों में भीड़ होड़ लगी, कितना सुन्दर किसका अतिशय। पर लक्ष्य एक, जिनवर सेवा, पूजा श्रद्धा जिन धर्म विजय।।32॥ ऊँ ह्रीं हर्षित सृष्टिरूपातिशयगुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। जिस मग में श्री जिनदेव चलें, हो धर्मचक्र सबसे आगे। उसके सन्मुख न टिके अधर्म, सारे दुर्गुण डरकर भागें।। हिंसक न हिसा को छोड़ा, पापी पापों से रहें विमुख। निर्मल निष्पाप हृदय होते, जब धर्मचक्र आता सन्मुख।।33॥ ऊँ ह्रीं अंग्रगामि धर्म चक्रातिशयमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। 774
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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