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________________ लो-बीजाक्षर को जपो, करे शुद्ध यह भाव। यह नौका भवसिंधु को, तरने की सद्भाव।। ॐ ह्रीं “लो'' बीजाक्षराय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।98॥ हृदय कमल का हार है, गु बीज निरवार। सर्प विसूचिका आदि को, हरे बीज भव हार।। ॐ ह्रीं 'गु'' बीजाक्षराय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।99॥ नरपति के पद को करे, त्त बीजाक्षर सार। मुनि हृदय में बस रहा, ध्यान करे अघहार।। ऊँ ह्रीं "त'' बीजाक्षराय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।1000 विजयी करता बीज मा, सिद्धि करे अघहार। केवल ज्ञान प्रकाश को, करता है निरधार।। ॐ ह्रीं “मा'' बीजाक्षराय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।101॥ केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो के- बीजाक्षर ज्योति जगावे, काम भाव संताप नशावें। सुरपति इसके दास कहावे, इसको पूजें शिवपद पावें।। ऊँ ह्रीं के'' बीजाक्षराय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।102॥ व-बीजाक्षर अमिय समाना, कुमति कुश्रुति को दूर हटाना। जन्म मरण के रोग हरेगा, आत्मिक सुख में अवश धरेगा।। ॐ ह्रीं व''बीजाक्षराय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।103॥ 722
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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