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________________ ॐ ह्रीं वीतरागवचनेषु यथावतश्रद्धानकरणे समर्थ अति विचयधर्मध्यान सहितउपभोगलब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।2। विधि के नाशन हेत मुहर्मुहु चिंतत ध्यान सु ध्याई। द्वितिय भेद अपायविचय है, धर्म ध्यान श्रुत गाई।। ता युत श्री जिनराज विराजित पूजत पुण्य बढाई। लब्धि नाम उपभोग सार धर, तीनशल्य कहवाई।। ॐ ह्रीं कर्मणां नाशनहेतुत्व मुहुर्मुहुयत् चितवनं ततअपायविचयनाम धर्म ध्यान सहितं उपभोगलब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।3।। पूर्वोपाजित कर्म उदयतें सुख वा दुख उपजावे। बार बार तसु करत चितवन, विचयविपाक कहावे।। धर्मध्यान को तृतीय भेद यह, श्री जिनराज धरावे। सो उपभोग विहार लब्धि हम पूजि परम पद पावै।। ऊँ ह्रीं पूर्वोपार्जितकर्मणा उदयेनसुखंदुखं वा यत् मुहुर्मह चितवनं विपाक विचयनाम उपभोगलब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥4॥ लोकालोक स्वरूप चिंतवन, ध्यान मांहि ठहराई। तूर्य भेद शुभ ध्यान तणों संस्थान विचय यह पाई।। लब्धि सार उपभोग नाम जिन, धारत कर्म क्षपाई। ऐसे जिनवर के पद पूजूं, हरष हरष गुण गाई।। ऊँ ह्रीं लोकालोकस्वरूप चितवनकारक संस्थान विचय के धर्म ध्यानसहित उपभोगलब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।5।। 670
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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