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________________ ज्ञानावरणी दर्शनावरणी मोह करम दुःखदाई। वेदनी नाम गोत्र अंतराय शिवमग रोक लगाई || तिनकूँ हरिकरि शिवफल पावन श्रीफल आदि चढ़ाई। बलरिद्धिधार मुनीश्वर पूजत बल अनंत है जाई॥8॥ ऊँ ह्रीं बलरिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः फलम् निर्वपामीति स्वाहा। जल गंधाक्षत पुष्प जु नेवत दीप धूप फल ल्याई। अष्टद्रव्य एक कनक थाल भरि अर्घ करूँ गुनगाई || झं झं झं झं झांझि बजावत द्रुम द्रुम मृदंग धुनाई। नृत्य करत नूपुर झंकारत मुनिपद अरघ चढ़ाई॥9॥ ऊँ ह्रीं बलरिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। अर्थ प्रत्येक पूजा दोहा बलरिद्धिसार मुनिंदवर, भेय कर्ममल छेदि । अर्घ प्रत्येक चढ़ाय कै, पूजूं ऋद्धि के भेद।। 1 ।। ऊँ ह्रीं बलरिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। (कुसुमलता छंद) एक घाटि इकट्ठी परिमित श्रुत ज्ञान अक्षर सब तिनको। मनकरि कै सब अरथ विचारै एक मुहूरत माँहि तिनको।। मनोवली यह रिद्धि कहावत ताहि धेरै तिन श्रीमुनिवर को । अष्टद्रव्यमय अर्घलेय करि निसदिन पूजत चरनकमल को ||2|| ऊँ ह्रीं मनोबलरिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। द्वादशांगमय श्रुत ज्ञान को पाठ करै मुनिवर उच्च स्वर। एक मुहूरत माँहि सबको स्वर व्यंजन मात्रादि शुद्धवर ।। तालाव कंठ खेद नहीं होवै वचनवली है सो रिषिवर । 561
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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