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________________ अंतर्दधि कामेच्छ बहु, ऋद्धि विक्रिया जान । तप प्रभाव उपजे स्वयं, जजूं साधु अघहान।। ॐ ह्रीं विक्रियायां अंतर्घानादिऋद्धिप्राप्तेभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ 218 मास पक्ष दो चार दिन, करत रहे उपवास । आमरणं तप उग्र धर, जजूं साधु गुणवास। ॐ ह्रीं उग्रतपऋद्धिप्राप्तेभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥ 219॥ घोर कठिन उपवास धर, दीप्तमई तन धार । सुरभि श्वास दुर्गन्ध विन, जजूं यती भाव पार।। ऊँ ह्रीं दीप्तऋद्धिप्राप्तेभ्यः अयं निर्वपामीति स्वाहा॥220॥ अग्नि माहिं जल सम विलयभोजन पय हो जाय।मल कफ मूत्र न परिणमें, जजूं यती उमगाय। ऊँ ह्रीं तप्ततपऋद्धिप्राप्तेभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥221॥ मुक्तावली महान तप, कर्मन नाशन हेतु । करत रहें उत्साह से, जजूं साधु सुख हेतु॥ ॐ ह्रीं महातपऋद्धिप्राप्तेभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥222॥ कास श्वास ज्वर गृसितहो, अनशन तपगिरि साध। दुष्टन कृत उपसर्ग सह, पूजूं साधु आवाध।। ऊँ ह्रीं घोरतपऋद्धिप्राप्तेभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा || 223 ॥ घोर घोर तप करत भी, होत न बल से हीन । उत्तर गुण विकसित करें, जजूं साधु निजलीन। ॐ ह्रीं घोरपराक्रमऋद्धिप्राप्तेभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।224॥ दुष्ट स्वप्न दुर्गति सकल, रहित शील गुणधार। परब्रह्म अनुभव करें, जजूं साधु अविकार।। ॐ ह्रीं घोरब्रह्मचर्यगुणऋद्धिप्राप्तेभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥225॥ 466
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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