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________________ धरें उठाय वस्तु देख शोध खूब लेत हैं, न जन्तु कोय कष्ट पाय, इस विचार लेत हैं। अतः सु मोर पिच्छिका सुमार्जिका सुधारते, जजूं यती दया निधान, जीव दुःख टारते।। ऊँ ह्रीं आदाननिक्षेपणसमितिधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अयं निर्वपामीति स्वाहा।।179॥ धेरै अंग नेत्र नासिकादि मल सु देख के, न होय जन्तु घात थान शुद्धता सुपेख के। परम दया विचार सार व्युत्सर्ग साधते, जजूं यतीश चाह दाह शांति पय बुझावते।। ऊँ ह्रीं व्युत्सर्गसमितिपालकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।180॥ न उष्ण शीत मृदु कठिन गुरु लघू सपर्शते, न चीकने रूक्ष वस्तु से मिलाप पावते। न रागद्वेष को करें समान भाव धारते, जजूं यती दमे सपर्श ज्ञान भाव सारते।। ऊँ ह्रीं स्पर्शनेन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥181॥ न मिष्टक्ति लौण कटुक, आत्म स्वाद चाहते, करत न रागद्वेष शौच भाव को निवाहते। सु जान के सुभावपुद्गलादि साम्य धारते, जजूं यती सदा जु चाह दाह को निवारते।। ऊँ ह्रीं रसनेन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्यः अयं निर्वपामीति स्वाहा।।182॥ जगत पदार्थ पुद्गलादि आत्मगुण न त्यागते, सुगन्ध गन्ध दुःखदाय साधु जहां पावते। न रागद्वेष धार घ्राण का विषय निवारते, जजूं यतीश एक रूप शांतता प्रचारते।। ऊँ ह्रीं घ्राणेन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥183॥ सफेद लाल कृष्ण पीत नील रंग देखते, स्वरूप ओ कुरूप देख वस्तु रूप पेखते। करें न रागद्वेष साम्यभाव को सम्हारते, जजूं यती महान चक्षु राग को निवारते।। ऊँ ह्रीं चक्षुरिन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।184॥ 460
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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