SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 459
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अचौर्य व्रत महान धार शौच भाव भावते, न लेत हैं अदत्त तृण जलादि राग भावते। सुतृप्त हैं महान आत्म जन्य सौख्य पावते, जजों यति सदा सु ज्ञान ध्यान मन रमावते।। ॐ ह्रीं अचौर्य महाव्रतधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।173॥ सु ब्रह्मचर्य व्रत महान धार शील पालते, न काष्ठमय कलत्र देव भामिनी विचारते। मनुष्यणी सु पशुतिया कभी न मन रमावते, जजों यती न स्वप्नमाहिं शील को गमावते।। ऊँ ह्रीं ब्रह्मचर्यव्रतधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।174॥ न राग द्वेष आदि अंतरंग संग धारते, न क्षेत्र आदि बाह्य संग रंक भी सम्हारते। धरेंसु साम्यभाव आय पर पृथक विचारते, जजों यती ममत्व हीन साम्यता प्रचारते।। ॐ ह्रीं परिग्रहत्यागव्रतधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।175॥ सु चार हाथ भूमि अग्र देख नाय धारते, न जीव घात होय यत्न सार मन विचारते। सुचार मास वृष्टिकाल एक थल विराजते, जजू यती सु सन्मति जो ईर्या सम्हारते।। ऊँ ह्रीं ईर्यासमिति धारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।1761 न क्रोध लोभ हास्य भय कराय साम्य धारते, वचन सुमिष्ट इष्ट मित प्रमाण ही निकारते। यथार्थ शास्त्र ज्ञायका सुधा सु आत्म पीवते, जजू यतीश द्रव्य आठ तत्व माहिं जीवते।। ॐ ह्रीं भाषासमिति धारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।177॥ महान दोष छयालिसों सु टार ग्रास लेत हैं, पडे जु अन्तराय तुर्त ग्रास त्याग देत हैं। मिले जु भोग पुण्य से उसी में सब्र धारते, जजू यतीश काम जीत राग द्वेष टारते।। ऊँ ह्रीं एषणासमिति धारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।178॥ 459
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy