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________________ दृढराजसुवंशनभोमिहिरं त्रिजगत्त्रयभूषणमभ्युदयम्। जिनसम्भवमध्वगतिप्रदमर्चनया प्रणमामि पुरस्कृतया।।3।। ॐ ह्रीं सम्भव जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। सव्यैः करैश्चक्रमसिं सृणिं यो, दण्डं त्रिशूलं सितकत्रिकां च। अन्यैर्बिभर्ति श्रितसम्भवं तं, यजे त्रिनेत्रं त्रिमुखाख्यं यक्ष।।3।। ऊँ आं क्रों ह्रीं सम्भव जिनस्य शासनयक्ष त्रिमुखाय इदं अध्यं गृहाण गृहाण स्वाहा। धत्तेर्धचन्द्रं परशुं फलं वै, कृपाणपिंडीवरमादधानाम्। यजामहे सम्भवनाथ यक्षी, प्रज्ञप्तिसंज्ञां क्षपितारिशक्तिम्।।3।। ॐ आं क्रों ह्रीं सम्भव जिनस्य शासनयक्षि प्रज्ञप्तिदेव्यै इदं अध्यं गृहाण गृहाण स्वाहा। कपिकेतनमीश्वरमर्थयतो, मृतिजन्मजरापरिनोदयतः। भविकस्य महोत्सव सिद्धिमिया-दतएव यजे ह्यभिनन्दनकम्।।4।। ऊँ ह्रीं अभिनन्दन जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। कोदण्ड सत्खेटक वामहस्तं, वामान्यहस्तोद्धृतबाणखड्ग। यक्षेश्वरत्वाभिनन्दनार्हत् पादाब्जशृंगं प्रयजे प्रसीद।।4।। ॐ आं क्रों ह्रीं अभिनन्दन जिनस्य शासनयक्ष यक्षेश्वराय इदं अध्यं गृहाण-गृहाण स्वाहा। या नागपाशं फलमक्षसूत्रं वरं बिभर्ति प्रवरप्रभावा। यजे यन्तीमभिनन्दनेश-मुच्छृखलर्द्धि पविशृंखलां ताम्॥4॥ ॐ आं क्रों ह्रीं अभिनन्दन जिनस्य शासनयक्षि वज्रश्रृंखलादेव्यै इदं अध्यं गृहाण गृहाण स्वाहा। 380
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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